भारत का इतिहास

बुधवार, नवंबर 04, 2015

रणथम्भौर क़िला

रणथम्भौर क़िला  

रणथम्भौर क़िला
रणथम्भौर क़िला
विवरण'रणथम्भौर क़िला' राजस्थान के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में से एक है। यह ऐतिहासिक क़िला राजस्थान की ऐतिहासिक घटनाओं तथा गौरव का प्रतीक है।
राज्यराजस्थान
ज़िलासवाईमाधोपुर
निर्माताचौहान वंशीय शासक
निर्माण कालआठवीं शताब्दी
भौगोलिक स्थितियह क़िला 700 फुट की ऊंचाई पर तथा विंध्य पठार और अरावली पहाड़ियों के बीच स्थित है।
प्रसिद्धिऐतिहासिक पर्यटन स्थल
कब जाएँअक्टूबर और अप्रैल के बीच।
हवाई अड्डासांगानेर हवाई अड्डा (जयपुर)
रेलवे स्टेशनसवाई माधोपुर
क्या देखेंरणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान
संबंधित लेखराजस्थानराजस्थान का इतिहास,चौहान वंशराजस्थान पर्यटन
अन्य जानकारीविभिन्न ऐतिहासिक महत्त्व के ग्रंथोंमें रणथम्भौर का उल्लेख मिलता है।इतिहास में सर्वप्रथम इस क़िले परचौहानों के आधिपत्य का उल्लेख मिलता है।
रणथम्भौर क़िला (अंग्रेज़ीRanthambore Fortराजस्थान के सवाईमाधोपुर ज़िले में स्थित प्राचीन ऐतिहासिक एवं सामरिक महत्त्व के दुर्गों में अपना विशेष स्थान रखता है। यह अत्यंत विशाल पहाड़ी दुर्ग है। अपनी प्राकृतिक बनावट के कारण यह काफ़ी प्रसिद्ध है। यद्यपि यह दुर्ग ऊँची पहाड़ियों के पठार पर बना हुआ है, परंतु प्रकृति ने इसे अपने अंक में इस तरह भर लिया है कि मुख्य द्वार पर पहुँचकर ही इस दुर्ग के दर्शन किये जा सकते हैं। इस दुर्ग के प्राचीर से काफ़ी दूर तक शत्रु पर निगाह रखी जा सकती थी। यह क़िला चारों ओर सघन वनों से आच्छादित चम्बल की घाटी पर नियंत्रण रखता था।

इतिहास

रणथम्भौर क़िला राजस्थान में ऐतिहासिक घटनाओं एवं बहादुरी का प्रतीक है। इस क़िले के निर्माता का नाम अनिश्चित है, किन्तु इतिहास में सर्वप्रथम इस पर चौहानों के अधिकार का उल्लेख मिलता है। सम्भव है कि राजस्थान के अनेक प्राचीन दुर्गों की भाँति इसे भी चौहानों ने ही बनवाया हो। जनश्रुति है कि प्रारम्भ में इस दुर्ग के स्थान के निकट 'पद्मला' नामक एक सरोवर था। यह इसी नाम से आज भी क़िले के अन्दर ही स्थित है। इसके तट पर पद्मऋषि का आश्रम था। इन्हीं की प्रेरणा से जयंत और रणधीर नामक दो राजकुमारों ने जो कि अचानक ही शिकार खेलते हुए वहाँ पहुँच गए थे, इस क़िले को बनवाया और इसका नाम 'रणस्तम्भर' रखा। क़िले की स्थापना पर यहाँ गणेश जी की प्रतिष्ठा की गई थी, जिसका आह्वान राज्य मेंविवाहों के अवसर पर किया जाता है।
रणथंभौर क़िले से रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान का दृश्य

निर्माण

राजस्थान के इतिहास में कई ऐतिहासिक घटनाओं के साक्षी रहे रणथम्भौर क़िले के निर्माण का समय एवं निर्माता के बारे में निश्चित जानकारी नहीं है। सामान्यतः यह माना जाता है कि इस क़िले का निर्माण आठवीं शताब्दी में हुआ था। ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक इस क़िले की प्रसिद्धि इतनी फैल चुकी थी कि तत्कालीन समय के विभिन्न ऐतिहासिक महत्त्व के ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। इतिहास में सर्वप्रथम इस क़िले पर चौहानों के आधिपत्य का उल्लेख मिलता है। यह सम्भव है कि चौहान शासक रंतिदेव ने इसका निर्माण करवाया हो।

युद्ध

इस क़िले का प्रारम्भिक इतिहास अनिश्चित है। मुहम्मद ग़ोरी के हाथों तराइन में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद उनका पुत्र गोविन्दराज दिल्ली और अजमेर छोड़कर रणथम्भौर आ गया और यहाँ शासन करने लगा। उसके बाद लगभग सौ वर्षों तक चौहान रणथम्भौर पर शासन करते रहे। उनके समय में दुर्ग के वैभव में बहुत वृद्धि हुई। राजपूत काल के पश्चात् से 1563 ई. तक यहाँ पर मुस्लिमों का अधिकार था। इससे पहले बीच में कुछ समय तक मेवाड़ नरेशों के हाथ में भी यह दुर्ग रहा। इनमें चौहान शासक राणा हम्मीर प्रमुख हैं। इनके साथ दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलज़ी का भयानक युद्ध 1301 ई. में हुआ था, जिसके फलस्वरूप रणथम्भौर की वीर नारियाँ पतिव्रत धर्म की ख़ातिर चिता में जलकर भस्म हो गईं और राणा हम्मीर युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुए। इस युद्ध का वृत्तान्त जयचंद के 'हम्मीर महाकाव्य' में है। 1563 ई. में बूँदी के एक सरदार सामन्त सिंह हाड़ा ने बेदला और कोठारिया के चौहानों की सहायता से मुस्लिमों से यह क़िला छीन लिया और यह बूँदी नरेश सुजानसिंह हाड़ा के अधिकार में आ गया।

मुग़ल अधिकार

चार वर्ष बाद मुग़ल बादशाह अकबर ने चित्तौड़ की चढ़ाई के पश्चात् मानसिंह को साथ लेकर रणथम्भौर पर चढ़ाई की। अकबर ने परकोटे की दीवारों को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, किन्तु पहाड़ियों के प्राकृतिक परकोटों और वीर हाड़ाओं के दुर्दनीय शौर्य के आगे उसकी एक न चली। किन्तु राजा मानसिंह ने छलपूर्वक राव सुजानसिंह को अकबर से सन्धि करने के लिए विवश कर दिया। सुजानसिंह ने लोभवश क़िला अकबर को दे दिया, किन्तु सामन्त सिंह ने फिर भी अकबर के दाँत खट्टे करके मरने के बाद ही क़िला छोड़ा। 1569 ई. में इस पर अकबर का अधिकार हो गया। इसके बाद अगले दो सौ वर्षों तक इस पर मुग़लों का अधिकार बना रहा। 1754 ई. तक रणथम्भौर पर मुग़लों का अधिकार रहा। इसी वर्ष इसे मराठों ने घेर लिया, किन्तु दुर्गाध्यक्ष ने जयपुर के महाराज सवाई माधोसिंह की सहायता से मराठों के आक्रमण को विफल कर दिया। तब से आधुनिक समय तक यह क़िलाजयपुर रियासत के अधिकार में रहा।

परिवेश

रणथम्भौर
रणथम्भौर का दुर्ग सीधी ऊँची खड़ी पहाड़ी पर स्थित है, जो आसपास के मैदानों के ऊपर 700 फुट की ऊंचाई पर है। यह विंध्य पठार और अरावली पहाड़ियों के बीच स्थित है, जो 7 कि.मी. भौगोलिक क्षेत्र में फैला हुआ है। क़िले के तीन ओर प्राकृतिक खाई बनी है, जिसमें जल बहता रहता है। क़िला सुदृढ़ और दुर्गम परकोटे से घिरा हुआ है। दुर्ग के दक्षिणी ओर 3 कोस पर एक पहाड़ी है, जहाँ 'मामा-भानजे' की क़ब्रें हैं। सम्भवतः इस पहाड़ी पर से यवन सैनिकों ने इस क़िले को जीतने का प्रयत्न किया होगा और उसी में यह सरदार मारे गए होंगे। क़िले में विभिन्न हिन्दू और जैन मंदिरों के साथ एक मस्जिद भी है. आवासीय और प्रवासी पक्षियों की एक बड़ी विविधता यहाँ देखी जा सकती है, क्योंकि क़िले के आसपास कई जल निकाय उपस्थित हैं। इस क़िले से पर्यटक रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान के शानदार दृश्यों का आनन्द उठा सकते हैं।

कलात्मक भवन

चौहान शासकों ने इस दुर्ग में अनेक देवालयों, सरोवरों तथा भवनों का निर्माण करवाया था। चित्तौड़ के गुहिल शासकों ने भी इसमें कई भवन बनवाये। बाद में मुस्लिम विजेताओं ने कई भव्य देवालयों को नष्ट कर दिया। वर्तमान में क़िले में मौजूद नौलखा दरवाज़ा, दिल्ली दरवाज़ा, तोरणद्वार, हम्मीर के पिता जेतसिंह की छतरी, पुष्पवाटिका, गणेशमन्दिर, गुप्तगंगा, बादल महल, हम्मीर कचहरी, जैन मन्दिर आदि का ऐतिहासिक महत्त्व है। दुर्ग में आकर्षित करने वाले कलात्मक भवन अब नहीं रहे, फिर भी शेष बचे हुए भवनों की सुदृढ़ता, विशालता तथा उनकी घाटियों की रमणीयता दर्शकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती है।

भगवान के लिए डाक

रणथम्भौर क़िले के अंदर गणेश जी का प्रसिद्ध मंदिर है। कहते हैं कहीं भी कोई शादी व्याह हो, सबसे पहला कार्ड रणथम्भौर के गणेश जी के नाम भेजा जाता है। यह शायद देश का एकमात्र मंदिर होगा, जहाँ भगवान के नाम डाक आती है। डाकिया इस डाक को मंदिर में पहुंचा देता है। पुजारी इस डाक को भगवान गणेश के चरणों में रख देते हैं। घर में कोई भी मांगलिक कार्य हो, लोग गणेश जी को बुलाने के लिए यहाँ रणथम्भौर वाले गणेश जी के नाम कार्ड भेजना नहीं भूलते।[1]

रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान

रणथम्भौर में हिरन
'रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान' उत्तर भारत में सबसे बड़ा वन्यजीव संरक्षण स्थल है। यह राजस्थान के सबसे प्रसिद्ध स्थानों में से एक है। वर्ष 1955 में यह वन्यजीव अभयारण्य के रूप में स्थापित किया गया था। बाद में 1973 में 'प्रोजेक्ट टाइगर' के पहले चरण में इसको शामिल किया गया। इस अभयारण्य को 1981 में राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा प्रदान किया गया था। बाघों के अलावा यह राष्ट्रीय अभ्यारण्य विभिन्न जंगली जानवरों, सियार, चीते, लकड़बग्घा, दलदली मगरमच्छ, जंगली सुअर और हिरणों की विभिन्न किस्मों के लिए एक प्राकृतिक निवास स्थान उपलब्ध कराता है। इसके अतिरिक्त यहाँ जलीय वनस्पति, जैसे- लिली, डकवीड और कमल की बहुतायत है। रणथम्भौर राष्ट्रीय अभ्यारण्य हाड़ौती के पठार के किनारे पर स्थित है। यह चंबल नदी के उत्तर और बनास नदी के दक्षिण में विशाल मैदानी भूभाग पर फैला है। अभ्यारण्य का क्षेत्रफल 392 वर्ग कि.मी. है। इस विशाल अभ्यारण्य में कई झीलें हैं, जो वन्यजीवों के लिए अनुकूल प्राकृतिक वातावरण और जलस्रोत उपलब्ध कराती हैं। इस अभ्यारण्य का नाम प्रसिद्ध रणथम्भौर दुर्ग पर रखा गया है।

आसपास के दर्शनीय स्थल

रणथम्भौर के आसपास कई प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल हैं, जिन्हें देखा जा सकता है-
तारागढ़ दुर्ग, बूँदी

बूँदी

Seealso.jpg इन्हें भी देखेंबूँदी
बूँदी रणथंभौर से 66 कि.मी. दक्षिण में है। यह अपनी ऐतिहासिक इमारतों विशेषकर तारागढ़ क़िले के लिए प्रसिद्ध है। राजस्थान के दक्षिण-पूर्व में स्थित बूँदी एक पूर्व रियासत एवं ज़िला मुख्यालय है। इसकी स्थापना सन 1242 ई. में राव देवाजी ने की थी। यहाँ के शासक राव सुर्जन हाड़ा ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। शाहजहाँ के समय बूँदी के शासक छत्रसाल हाड़ा ने दारा शिकोह की ओर से धरमत की लड़ाई में भाग लिया था, किंतु वह इस युद्ध में मारा गया था। बूँदी अपनी विशिष्ट चित्रकला शैली के लिए विख्यात है। श्रावण-भादों में नाचते हुए मोर बूँदी के चित्रांकन परम्परा में बहुत सुन्दर बन पड़े हैं। यहाँ के चित्रों में नारी पात्र बहुत लुभावने प्रतीत होते हैं। नारी चित्रण में तीखी नाक, बादाम-सी आँखें, पतली कमर, छोटे व गोल चेहरे आदि मुख्य विशिष्टताएँ हैं। स्त्रियाँ लाल-पीले वस्त्र पहने अधिक दिखायी गयी हैं।

करौली

Seealso.jpg इन्हें भी देखेंकरौली
करौली उत्तर भारत के राजस्थान का प्रमुख नगर और ज़िले का मुख्यालय है, जो पूर्व में करौली राज्य की राजधानी था। यहाँ का 'कैलादेवी मन्दिर' राज्य के करौली नगर में स्थित एक प्रसिद्व हिन्दू धार्मिक स्थल है। जहाँ प्रतिवर्ष मार्च-अप्रॅल में एक बहुत बड़ा मेला लगता है। इस मेले में राजस्थान के अलावा दिल्लीहरियाणामध्य प्रदेशउत्तर प्रदेश के तीर्थ यात्री आते है। मुख्य मन्दिर संगमरमर से बना हुआ है, जिसमें कैला (दुर्गा देवी) एवं चामुण्डा देवी की प्रतिमाएँ हैं। कैलादेवी की आठ भुजाऐं एवं सिंह पर सवारी करते हुए बताया है। यहाँ क्षेत्रीय लांगुरिया के गीत विशेष रूप से गाये जाते है, जिसमें भक्त लांगुरिया के माध्यम से कैलादेवी को अपनी भक्ति-भाव प्रदर्शित करते है। उत्तर भारत के प्रमुख शक्तिपीठ के रूप में ख्याति प्राप्त कैला देवी मंदिर देवी भक्तों के लिए पूजनीय है, यहाँ आने वालों को सांसारिक भागमभाग से अलग अनोखा सुकून मिलता है। यही कारण है कि साल दर साल कैला माँ के दर्शनार्थियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।

कब जाएँ

यह स्थान वर्ष भर उदारवादी जलवायु का अनुभव प्रदान कराता है। इस स्थान की यात्रा का सबसे अच्छा समय अक्टूबर और अप्रैल के बीच का है। इस अवधि के दौरान मौसमसुखद और दर्शनीय स्थलों की यात्रा के लिए एकदम सही रहता है।

कैसे पहुँचें

रणथम्भौर तक हवाई, रेल और सड़क मार्ग द्वारा आसानी से पहुँचा जा सकता है। जयपुर में 'सांगानेर हवाई अड्डा' रणथम्भौर से सबसे नजदीक है, जबकि 'सवाई माधोपुर रेलवे स्टेशन' निकटतम रेलवे स्टेशन है

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