बिरजू महाराज
बिरजू महाराज
| |
पूरा नाम | बृजमोहन नाथ मिश्रा |
जन्म | 4 फ़रवरी, 1938 |
जन्म भूमि | लखनऊ, उत्तर प्रदेश |
अभिभावक | अच्छन महाराज |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | शास्त्रीय संगीत और नाट्य |
पुरस्कार-उपाधि | 'पद्म विभूषण' (1986), 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार', 'कालिदास सम्मान' |
प्रसिद्धि | शास्त्रीय नर्तक |
विशेष योगदान | आपने कत्थक शैली में नृत्य रचना को जोड़कर उसे आधुनिक बना दिया है और नृत्य नाटिकाओं को भी प्रचलित किया है। |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | बिरजू महाराज की 'भारतीय शास्त्रीय संगीत' पर भी अच्छी पकड़ है। ठुमरी, दादरा, भजन और गजल गायकी में उनका कोई जवाब नहीं है। |
बाहरी कड़ियाँ | आधिकारिक वेबसाइट |
अद्यतन |
12:55, 30 जनवरी, 2013 (IST)
|
बिरजू महाराज (वास्तविक नाम- बृजमोहन नाथ मिश्रा, अंग्रेज़ी: Birju Maharaj; जन्म- 4 फ़रवरी, 1938, लखनऊ,उत्तर प्रदेश) भारत के प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य कलाकारों में से एक हैं। वे भारतीय नृत्य की 'कथक' शैली के आचार्य औरलखनऊ के 'कालका-बिंदादीन' घराने के एक मुख्य प्रतिनिधि हैं। ताल और घुँघुरूओं के तालमेल के साथ कथक नृत्य पेश करना एक आम बात है, लेकिन जब ताल की थापों और घुँघुरूओं की रूंझन को महारास के माधुर्य में तब्दील करने की बात हो तो बिरजू महाराज के अतिरिक्त और कोई नाम ध्यान में नहीं आता। बिरजू महाराज का सारा जीवन ही इस कला को क्लासिक की ऊँचाइयों तक ले जाने में ही व्यतीत हुआ है। उन्हें भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'पद्म विभूषण' (1986) और 'कालीदास सम्मान' समेत अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। उन्हें 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय' और 'खैरागढ़ विश्वविद्यालय' से 'डॉक्टरेट' की मानद उपाधि भी मिल चुकी है।[1]
जन्म तथा शिक्षा
बिरजू महाराज का जन्म 4 फ़रवरी, 1938 को लखनऊ, उत्तर प्रदेश के 'कालका बिन्दादीन घराने' में हुआ था। पहले उनका नाम 'दुखहरण' रखा गया था, जो बाद में बदल कर 'बृजमोहन नाथ मिश्रा' हुआ।[1] इनके पिता का नाम जगन्नाथ महाराज था, जो 'लखनऊ खराने' से थे और अच्छन महाराज के नाम से जाने जाते थे। अच्छन महाराज की गोद में महज तीन साल की उम्र में ही बिरजू की प्रतिभा दिखने लगी थी। इसी को देखते हुए पिता ने बचपन से ही अपने यशस्वी पुत्र को कला दीक्षा देनी शुरू कर दी। किंतु इनके पिता की शीघ्र ही मृत्यु हो जाने के बाद उनके चाचाओं, सुप्रसिद्ध आचार्यों शंभू और लच्छू महाराज ने उन्हें प्रशिक्षित किया। कला के सहारे ही बिरजू महाराज को लक्ष्मी मिलती रही। उनके सिर से पिता का साया उस समय उठा, जब वह महज नौ साल के थे।
विरासत
भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ा कत्थक नृत्य बिरजू महाराज को विरासत में मिला। उनके पूर्वज ईश्वरी प्रसाद मिश्र इलाहाबादके हंडिया तहसील के रहने वाले थे और उन्हें कत्थक के पहले ज्ञात शिक्षक के रूप में जाना जाता है। इसी खानदान के ठाकुर प्रसाद नवाब वाजिद अलीशाह के कत्थक गुरु थे। कत्थक नृत्य के मामले में आज के समय में बिरजू महाराज का कोई सानी नहीं है। पिता अच्छन महाराज के साथ महज सात साल की उम्र में ही वह देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर अपनी प्रस्तुति देने लगे थे, लेकिन उनकी पहली एकल प्रस्तुति रही बंगाल में आयोजित 'मन्मथनाथ गुप्त समारोह' में, जहाँ उन्होंने 'शास्त्रीय नृत्य' के दिग्गजों के समक्ष अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन किया था। तभी उनकी प्रतिभा की झलक लोगों को मिल गई थी और इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
प्रशिक्षण कार्य
उन्होंने नृत्य के पारंपरिक विषयों में जहाँ बोल्ड और बौद्धिक रचनाओं का समावेश किया वहीं उनकी समसामयिक कार्यों में भी ताजगी कूट कूटकर भरी है। पिता के देहांत के बाद ही बिरजू महाराज की गुरु बहन डॉ. कपिला वात्स्यायन उन्हें अपने साथ दिल्ली ले आई थीं। उन्होंने तैरह साल की उम्र में ही दिल्ली के 'संगीत भारती' में नृत्य का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। उन्होंने 'भारतीय कला केंद्र' तथा 'संगीत नाटक अकादमी' से संबद्ध कत्थक केंद्र में भी नृत्य का प्रशिक्षण दिया।[1]
प्रथम प्रस्तुति
मात्र 16 वर्ष की उम्र में ही बिरजू महाराज ने अपनी प्रथम प्रस्तुति दी और 28 वर्ष की उम्र में कत्थक में उनकी निपुणता ने उन्हें 'संगीत नाटक अकादमी' का प्रतिष्ठित पुरस्कार दिलवाया। शास्त्रीय नृत्य में बिरजू महाराज फ़्यूजन से भी नहीं घबराए। उन्होंने लुई बैंक के साथ रोमियो और जुलियट की कथा को कत्थक शैली में प्रस्तुत किया।
हिन्दी फ़िल्मों से नाता
बिरजू महाराज का बालीवुड से भी गहरा नाता रहा है। उन्होंने कई हिन्दी फ़िल्मों के गीतों का नृत्य निर्देशन किया। इनमें प्रख्यात फ़िल्मकार सत्यजीत राय की शास्त्रीय कृति 'शतरंज के खिलाड़ी' भी शामिल है। इस फ़िल्म में उन्होंने दो शास्त्रीय नृत्य दृश्यों के लिये संगीत रचा और गायन भी किया। प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा की 'दिल तो पागल है', 'गदर एक प्रेम कथा' तथा संजय लीला भंसाली की फ़िल्म 'देवदास' का नाम भी इनमें प्रमुखता से लिया जा सकता है।
नृत्य शैली
अपनी परिशुद्ध ताल और भावपूर्ण अभिनय के लिये प्रसिद्ध बिरजू महाराज ने एक ऐसी शैली विकसित की है, जो उनके दोनों चाचाओं और पिता से संबंधित तत्वों को सम्मिश्रित करती है। वह पदचालन की सूक्ष्मता और मुख व गर्दन के चालन को अपने पिता से और विशिष्ट चालों (चाल) और चाल के प्रवाह को अपने चाचाओं से प्राप्त करने का दावा करते हैं।
नवीन प्रयोग
बिरजू महाराज ने राधा=कृष्ण अनुश्रुत प्रसंगों के वर्णन के साथ विभिन्न अपौराणिक और सामाजिक विषयों पर स्वंय को अभिव्यक्त करने के लिये नृत्य की शैली में नूतन प्रयोग किये हैं। उन्होंने कत्थक शैली में नृत्य रचना, जो पहले भारतीय नृत्य शैली में एक अनजाना तत्त्व था, को जोड़कर उसे आधुनिक बना दिया है और नृत्य नाटिकाओं को प्रचलित किया है।
शास्त्रीय गायक व वादक
केवल नृत्य के क्षेत्र में ही बिरजू महाराज सिद्धहस्त नहीं हैं, बल्कि 'भारतीय शास्त्रीय संगीत' पर भी उनकी गहरी पकड़ है। ठुमरी, दादरा, भजन और गजल गायकी में उनका कोई जवाब नहीं है। वे कई वाद्य यंत्र भी बखूबी बजाते हैं। तबले पर उनकी बहुत अच्छी पकड़ है। इसके अतिरिक्त वह सितार, सरोद और सारंगी भी अच्छा प्रकार से बजा सकते हैं। ख़ास बात यह है कि उन्होंने इन वाद्य यंत्रों को बजाने की विधिवत शिक्षा नहीं ली है। एक संवेदनशील कवि और चित्रकार के रूप में भी उन्हें जाना जाता है।[1]
पुरस्कार व सम्मान
बिरजू महाराज ने अपनी नृत्य प्रतिभा के बल पर कई पुरस्कार व सम्मान भी प्राप्त किए हैं। उन्हें भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'पद्म विभूषण' से वर्ष 1986 में सम्मानित किया गया था। 'कालीदास सम्मान' से भी वे नवाजे जा चुके हैं। उन्हें 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय' और 'खैरागढ़ विश्वविद्यालय' से डॉक्टरेट की मानद उपाधि भी मिल चुकी है। गत कई वर्षों में उन्होंने व्यापक रूप से भ्रमण किया है और कई प्रस्तुतियाँ व प्रदर्शन व्याख्यान दिए हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें