भारत का इतिहास

बुधवार, मार्च 23, 2016

सुखदेव

सुखदेव  





पूरा नाम
सुखदेव थापर
जन्म 15 मई, 1907
जन्म भूमि लुधियाना, पंजाब
मृत्यु 23 मार्च, 1931
मृत्यु स्थान सेंट्रल जेल, लाहौर
मृत्यु कारण फाँसी
अभिभावक रामलाल थापर, रल्ला देवी
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि क्रांतिकारी
जेल यात्रा 15 अप्रैल, 1929
विद्यालय सनातन धर्म हाईस्कूल, लायलपुर; नेशनल कालेज, लाहौर
संबंधित लेख भगत सिंह, राजगुरु
अन्य जानकारी वर्ष 1926 में लाहौर में 'नौजवान भारत सभा' का गठन हुआ। इसके मुख्य योजक सुखदेव, भगत सिंह, यशपाल, भगवती चरण व जयचन्द्र विद्यालंकार थे।
सुखदेव (अंग्रेज़ी:Sukhdev, जन्म- 15 मई, 1907, पंजाब; शहादत- 23 मार्च, 1931, सेंट्रल जेल, लाहौर) को भारत के उन प्रसिद्ध क्रांतिकारियों और शहीदों में गिना जाता है, जिन्होंने अल्पायु में ही देश के लिए शहादत दी। सुखदेव का पूरा नाम 'सुखदेव थापर' था। देश के और दो अन्य क्रांतिकारियों- भगत सिंह और राजगुरु के साथ उनका नाम जोड़ा जाता है। ये तीनों ही देशभक्त क्रांतिकारी आपस में अच्छे मित्र और देश की आजादी के लिए अपना सर्वत्र न्यौछावर कर देने वालों में से थे। 23 मार्च, 1931 को भारत के इन तीनों वीर नौजवानों को एक साथ फ़ाँसी दी गई।

जन्म तथा परिवार

सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को गोपरा, लुधियाना, पंजाब में हुआ था। उनके पिता का नाम रामलाल थापर था, जो अपने व्यवसाय के कारण लायलपुर (वर्तमान फैसलाबाद, पाकिस्तान) में रहते थे। इनकी माता रल्ला देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं। दुर्भाग्य से जब सुखदेव तीन वर्ष के थे, तभी इनके पिताजी का देहांत हो गया। इनका लालन-पालन इनके ताऊ लाला अचिन्त राम ने किया। वे आर्य समाज से प्रभावित थे तथा समाज सेवा व देशभक्तिपूर्ण कार्यों में अग्रसर रहते थे। इसका प्रभाव बालक सुखदेव पर भी पड़ा। जब बच्चे गली-मोहल्ले में शाम को खेलते तो सुखदेव अस्पृश्य कहे जाने वाले बच्चों को शिक्षा प्रदान करते थे।

भगत सिंह से मित्रता

सन 1919 में हुए जलियाँवाला बाग़ के भीषण नरसंहार के कारण देश में भय तथा उत्तेजना का वातावरण बन गया था। इस समय सुखदेव 12 वर्ष के थे। पंजाब के प्रमुख नगरों में मार्शल लॉ लगा दिया गया था। स्कूलों तथा कालेजों में तैनात ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय छात्रों को 'सैल्यूट' करना पड़ता था। लेकिन सुखदेव ने दृढ़तापूर्वक ऐसा करने से मना कर दिया, जिस कारण उन्हें मार भी खानी पड़ी। लायलपुर के सनातन धर्म हाईस्कूल से मैट्रिक पास कर सुखदेव ने लाहौर के नेशनल कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ पर सुखदेव की भगत सिंह से भेंट हुई। दोनों एक ही राह के पथिक थे, अत: शीघ्र ही दोनों का परिचय गहरी दोस्ती में बदल गया। दोनों ही अत्यधिक कुशाग्र और देश की तत्कालीन समस्याओं पर विचार करने वाले थे। इन दोनों के इतिहास के प्राध्यापक 'जयचन्द्र विद्यालंकार' थे, जो कि इतिहास को बड़ी देशभक्तिपूर्ण भावना से पढ़ाते थे। विद्यालय के प्रबंधक भाई परमानन्द भी जाने-माने क्रांतिकारी थे। वे भी समय-समय पर विद्यालयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करते थे। यह विद्यालय देश के प्रमुख विद्वानों के एकत्रित होने का केन्द्र था तथा उनके भी यहाँ भाषण होते रहते थे।

क्रांतिकारी जीवन

वर्ष 1926 में लाहौर में 'नौजवान भारत सभा' का गठन हुआ। इसके मुख्य योजक सुखदेव, भगत सिंह, यशपाल, भगवती चरण व जयचन्द्र विद्यालंकार थे। 'असहयोग आन्दोलन' की विफलता के पश्चात 'नौजवान भारत सभा' ने देश के नवयुवकों का ध्यान आकृष्ट किया। प्रारम्भ में इनके कार्यक्रम नौतिक, साहित्यिक तथा सामाजिक विचारों पर विचार गोष्ठियाँ करना, स्वदेशी वस्तुओं, देश की एकता, सादा जीवन, शारीरिक व्यायाम तथा भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता पर विचार आदि करना था। इसके प्रत्येक सदस्य को शपथ लेनी होती थी कि वह देश के हितों को सर्वोपरि स्थान देगा।[1] परन्तु कुछ मतभेदों के कारण इसकी अधिक गतिविधि न हो सकी। अप्रैल, 1928 में इसका पुनर्गठन हुआ तथा इसका नाम 'नौजवान भारत सभा' ही रखा गया तथा इसका केन्द्र अमृतसर बनाया गया।

केंन्द्रीय समिति का निर्माण

सितम्बर, 1928 में ही दिल्ली के फ़िरोजशाह कोटला के खण्डहर में उत्तर भारत के प्रमुख क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई। इसमें एक केंन्द्रीय समिति का निर्माण हुआ। संगठन का नाम 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' रखा गया। सुखदेव को पंजाब के संगठन का उत्तरदायित्व दिया गया। सुखदेव के परम मित्र शिव वर्मा, जो प्यार में उन्हें 'विलेजर' कहते थे, के अनुसार भगत सिंह दल के राजनीतिक नेता थे और सुखदेव संगठनकर्ता, वे एक-एक ईंट रखकर इमारत खड़ी करने वाले थे। वे प्रत्येक सहयोगी की छोटी से छोटी आवश्यकता का भी पूरा ध्यान रखते थे। इस दल में अन्य प्रमुख व्यक्त थे-
  1. चन्द्रशेखर आज़ाद
  2. राजगुरु
  3. बटुकेश्वर दत्त

कुशल रणनीतिकार

'साइमन कमीशन' के भारत आने पर हर ओर उसका तीव्र विरोध हुआ। पंजाब में इसका नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे। 30 अक्तूबर को लाहौर में एक विशाल जुलूस का नेतृत्व करते समय वहाँ के डिप्टी सुपरिटेन्डेन्ट स्कार्ट के कहने पर सांडर्स ने लाठीचार्ज किया, जिसमें लालाजी घायल हो गए। पंजाब में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी का देहांत हो गया। उनके शोक में स्थान-स्थान पर सभाओं का आयोजन किया गया। सुखदेव और भगत सिंह ने एक शोक सभा में बदला लेने का निश्चय किया। एक महीने बाद ही स्कार्ट को मारने की योजना थी, परन्तु गलती से उसकी जगह सांडर्स मारा गया। इस सारी योजना के सूत्रधार सुखदेव ही थे। वस्तुत: सांडर्स की हत्या चितरंजन दास की विधवा बसन्ती देवी के कथन का सीधा उत्तर था, जिसमें उन्होंने कहा था, "क्या देश में कोई युवक नहीं रहा?" सांडर्स की हत्या के अगले ही दिन अंग्रेज़ी में एक पत्रक बांटा गया, जिसका भाव था "लाला लाजपत राय की हत्या का बदला ले किया गया।"

गिरफ्तारी

8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश सरकार के बहरे कानों में आवाज़ पहुँचाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंककर धमाका किया। स्वाभाविक रूप से चारों ओर गिरफ्तारी का दौर शुरू हुआ। लाहौर में एक बम बनाने की फैक्ट्री पकड़ी गई, जिसके फलस्वरूप 15 अप्रैल, 1929 को सुखदेव, किशोरी लाल तथा अन्य क्रांतिकारी भी पकड़े गए। सुखदेव चेहरे-मोहरे से जितने सरल लगते थे, उतने ही विचारों से दृढ़ व अनुशासित थे। उनका गांधी जी की अहिंसक नीति पर जरा भी भरोसा नहीं था। उन्होंने अपने ताऊजी को कई पत्र जेल से लिखे। इसके साथ ही महात्मा गांधी को जेल से लिखा उनका पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो न केवल देश की तत्कालीन स्थिति का विवेचन करता है, बल्कि कांग्रेस की मानसिकता को भी दर्शाता है। उस समय गांधी जी अहिंसा की दुहाई देकर क्रांतिकारी गतिविधियों की निंदा करते थे। इस पर कटाक्ष करते हुए सुखदेव ने लिखा, "मात्र भावुकता के आधार पर की गई अपीलों का क्रांतिकारी संघर्षों में कोई अधिक महत्व नहीं होता और न ही हो सकता है।"

सच्चे राष्ट्रवादी

सुखदेव, भगतसिंह, राजगुरु
Sukhdev, Bhagat Singh and Rajguru
सुखदेव ने तत्कालीन परिस्थितियों पर गांधी जी एक पत्र में लिखा, 'आपने अपने समझौते के बाद अपना आन्दोलन (सविनय अवज्ञा आन्दोलन) वापस ले लिया है और फलस्वरूप आपके सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया है, पर क्रांतिकारी बंदियों का क्या हुआ? 1915 से जेलों में बंद गदर पार्टी के दर्जनों क्रांतिकारी अब तक वहीं सड़ रहे हैं। बावजूद इस बात के कि वे अपनी सजा पूरी कर चुके हैं। मार्शल लॉ के तहत बन्दी बनाए गए अनेक लोग अब तक जीवित दफनाए गए से पड़े हैं। बब्बर अकालियों का भी यही हाल है। देवगढ़, काकोरी, महुआ बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र केस के बंदी भी अन्य बंदियों के साथ जेलों में बंद है।..... एक दर्जन से अधिक बन्दी सचमुच फांसी के फंदों के इन्तजार में हैं। इन सबके बारे में क्या हुआ?" सुखदेव ने यह भी लिखा, भावुकता के आधार पर ऐसी अपीलें करना, जिनसे उनमें पस्त-हिम्मती फैले, नितांत अविवेकपूर्ण और क्रांति विरोधी काम है। यह तो क्रांतिकारियों को कुचलने में सीधे सरकार की सहायता करना होगा।' सुखदेव ने यह पत्र अपने कारावास के काल में लिखा। गांधी जी ने इस पत्र को उनके बलिदान के एक मास बाद 23 अप्रैल, 1931 को 'यंग इंडिया' में छापा।

शहादत

ब्रिटिश सरकार ने सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु पर मुकदमे का नाटक रचा। 23 मार्च, 1931 को उन्हें 'लाहौर सेंट्रल जेल' में फांसी दे दी गई। देशव्यापी रोष के भय से जेल के नियमों को तोड़कर शाम को साढ़े सात बजे इन तीनों क्रांतिकारियों को फाँसी पर लटकाया गया। भगत सिंह और सुखदेव दोनों एक ही सन में पैदा हुए और एक साथ ही शहीद हो गए। 

भगतसिंह

भगतसिंह  


भगतसिंह
पूरा नाम शहीद-ए-आज़म अमर शहीद सरदार भगतसिंह
अन्य नाम भागां वाला
जन्म 28 सितंबर, 1907[1]
जन्म भूमि लायलपुर, पंजाब
मृत्यु 23 मार्च, 1931 ई.
मृत्यु स्थान लाहौर, पंजाब
मृत्यु कारण शहीद
अभिभावक सरदार किशन सिंह
नागरिकता भारतीय
धर्म सिख
आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
जेल यात्रा असेम्बली बमकाण्ड (8 अप्रैल, 1929)
विद्यालय डी.ए.वी. स्कूल
शिक्षा बारहवीं
संबंधित लेख सुखदेव, राजगुरु
प्रमुख संगठन नौज़वान भारत सभा, कीर्ति किसान पार्टी एवं हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ
रचनाएँ आत्मकथा दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाज़े पर), आइडियल ऑफ़़ सोशलिज्म (समाजवाद का आदर्श), स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार।
अमर शहीद सरदार भगतसिंह (अंग्रेज़ी:Bhagat Singh जन्म- 28 सितंबर, 1907[1], लायलपुर, पंजाब, मृत्यु- 23 मार्च, 1931, लाहौर, पंजाब) का नाम विश्व में 20वीं शताब्दी के अमर शहीदों में बहुत ऊँचा है। भगतसिंह ने देश की आज़ादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया, वह आज के युवकों के लिए एक बहुत बड़ा आदर्श है। भगतसिंह अपने देश के लिये ही जीये और उसी के लिए शहीद भी हो गये।

जीवन परिचय

भगतसिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907[1] को पंजाब के ज़िला लायलपुर में बंगा गाँव (पाकिस्तान) में हुआ था, एक देशभक्त सिख परिवार में हुआ था, जिसका अनुकूल प्रभाव उन पर पड़ा था। भगतसिंह के पिता 'सरदार किशन सिंह' एवं उनके दो चाचा 'अजीतसिंह' तथा 'स्वर्णसिंह' अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ होने के कारण जेल में बन्द थे। जिस दिन भगतसिंह पैदा हुए उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया। इस शुभ घड़ी के अवसर पर भगतसिंह के घर में खुशी और भी बढ़ गयी थी । भगतसिंह की दादी ने बच्चे का नाम 'भागां वाला' (अच्छे भाग्य वाला) रखा। बाद में उन्हें 'भगतसिंह' कहा जाने लगा। वे 14 वर्ष की आयु से ही पंजाब की क्रान्तिकारी संस्थाओं में कार्य करने लगे थे। डी.ए.वी. स्कूल से उन्होंने नवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1923 में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद उन्हें विवाह बन्धन में बाँधने की तैयारियाँ होने लगीं तो वे लाहौर से भागकर कानपुर आ गये।

सम्पादकीय लेख

कानपुर में उन्हें श्री गणेश शंकर विद्यार्थी का हार्दिक सहयोग भी प्राप्त हुआ। देश की स्वतंत्रता के लिए अखिल भारतीय स्तर पर क्रान्तिकारी दल का पुनर्गठन करने का श्रेय सरदार भगतसिंह को ही जाता है। उन्होंने कानपुर के 'प्रताप' में 'बलवंत सिंह' के नाम से तथा दिल्ली में 'अर्जुन' के सम्पादकीय विभाग में 'अर्जुन सिंह' के नाम से कुछ समय काम किया और अपने को 'नौजवान भारत सभा' से भी सम्बद्ध रखा।

क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में

1919 में रॉलेक्ट एक्ट के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग़ काण्ड हुआ । इस काण्ड का समाचार सुनकर भगतसिंह लाहौर से अमृतसर पहुँचे। देश पर मर-मिटने वाले शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे सदैव यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है ।

असहयोग आंदोलन का प्रभाव

1920 के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 में भगतसिंह ने स्कूल छोड़ दिया। असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए लाला लाजपत राय ने लाहौर में 'नेशनल कॉलेज' की स्थापना की थी। इसी कॉलेज में भगतसिंह ने भी प्रवेश लिया। 'पंजाब नेशनल कॉलेज' में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी। इसी कॉलेज में ही यशपाल, भगवतीचरण, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ। कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था। इसी क्लब के माध्यम से भगतसिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया। ये नाटक थे -
  1. राणा प्रताप
  2. भारत-दुर्दशा
  3. सम्राट चन्द्रगुप्त[2]
वे 'चन्द्रशेखर आज़ाद' जैस महान क्रान्तिकारी के सम्पर्क में आये और बाद में उनके प्रगाढ़ मित्र बन गये। 1928 में 'सांडर्स हत्याकाण्ड' के वे प्रमुख नायक थे। 8 अप्रैल, 1929 को ऐतिहासिक 'असेम्बली बमकाण्ड' के भी वे प्रमुख अभियुक्त माने गये थे। जेल में उन्होंने भूख हड़ताल भी की थी। वास्तव में इतिहास का एक अध्याय ही भगतसिंह के साहस, शौर्य, दृढ़ सकंल्प और बलिदान की कहानियों से भरा पड़ा है।

सेफ्टी बिल तथा ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल का विरोध

विचार-विमर्श के पश्चात् यह निर्णय हुआ कि इस सारे कार्य को भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु अंजाम देंगे। पंजाब के बेटों ने लाजपत राय के ख़ून का बदला ख़ून से ले लिया। सांडर्स और उसके कुछ साथी गोलियों से भून दिए गए। उन्हीं दिनों अंग्रेज़ सरकार दिल्ली की असेंबली में पब्लिक 'सेफ्टी बिल' और 'ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल' लाने की तैयारी में थी। ये बहुत ही दमनकारी क़ानून थे और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी। शासकों का इस बिल को क़ानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए।

असेम्बली बमकाण्ड

सुखदेव, भगतसिंह, राजगुरु
Sukhdev, Bhagat Singh and Rajguru
गंभीर विचार-विमर्श के पश्चात् 8 अप्रैल 1929 का दिन असेंबली में बम फेंकने के लिए तय हुआ और इस कार्य के लिए भगत सिंह एवं बटुकेश्वर दत्त निश्चित हुए। यद्यपि असेंबली के बहुत से सदस्य इस दमनकारी क़ानून के विरुद्ध थे तथापि वायसराय इसे अपने विशेषाधिकार से पास करना चाहता था। इसलिए यही तय हुआ कि जब वायसराय पब्लिक सेफ्टी बिल को क़ानून बनाने के लिए प्रस्तुत करे, ठीक उसी समय धमाका किया जाए और ऐसा ही किया भी गया। जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फेंका। इसके पश्चात् क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने का दौर चला। भगत सिंह और बटुकेश्र्वर दत्त को आजीवन कारावास मिला।
भगत सिंह और उनके साथियों पर 'लाहौर षड़यंत्र' का मुक़दमा भी जेल में रहते ही चला। भागे हुए क्रांतिकारियों में प्रमुख राजगुरु पूना से गिरफ़्तार करके लाए गए। अंत में अदालत ने वही फैसला दिया, जिसकी पहले से ही उम्मीद थी। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मृत्युदंड की सज़ा मिली।

फाँसी की सज़ा

23 मार्च 1931 की रात भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु देशभक्ति को अपराध कहकर फाँसी पर लटका दिए गए। यह भी माना जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह ही तय थी, लेकिन जन रोष से डरी सरकार ने 23-24 मार्च की मध्यरात्रि ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी और रात के अंधेरे में ही सतलुज के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया। 'लाहौर षड़यंत्र' के मुक़दमे में भगतसिंह को फ़ाँसी की सज़ा मिली तथा 23 वर्ष 5 माह और 23 दिन की आयु में ही, 23 मार्च 1931 की रात में उन्होंने हँसते-हँसते संसार से विदा ले ली। भगतसिंह के उदय से न केवल अपने देश के स्वतंत्रता संघर्ष को गति मिली वरन् नवयुवकों के लिए भी प्रेरणा स्रोत सिद्ध हुआ। वे देश के समस्त शहीदों के सिरमौर थे। 24 मार्च को यह समाचार जब देशवासियों को मिला तो लोग वहाँ पहुँचे, जहाँ इन शहीदों की पवित्र राख और कुछ अस्थियाँ पड़ी थीं। देश के दीवाने उस राख को ही सिर पर लगाए उन अस्थियों को संभाले अंग्रेज़ी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेने लगे। देश और विदेश के प्रमुख नेताओं और पत्रों ने अंग्रेज़ी सरकार के इस काले कारनामे की तीव्र निंदा की।
वर्ष घटनाक्रम
1919 वर्ष 1919 से लगाये गये 'शासन सुधार अधिनियमों' की जांच के लिए फ़रवरी 1928 में 'साइमन कमीशन' मुम्बई पहुँचा। पूरे भारत देश में इसका व्यापक विरोध हुआ।
1926 भगतसिंह ने लाहौर में 'नौजवान भारत सभा' का गठन किया । यह सभा धर्मनिरपेक्ष संस्था थी।
1927 दशहरे वाले दिन छल से भगतसिंह को गिरफ़्तार कर लिया गया। झूठा मुक़दमा चला किन्तु वे भगतसिंह पर आरोप सिद्ध नहीं कर पाए, मजबूरन भगतसिंह को छोड़ना पड़ा ।
1927 'काकोरी केस' में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशनसिंह को फांसी दे दी गई ।
सितंबर, 1928 क्रांतिकारियों की बैठक दिल्ली के फिरोजशाह के खंडहरों में हुई, जिसमें भगतसिंह के परामर्श पर 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' का नाम बदलकर 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन' कर दिया गया ।
30 अक्टूबर, 1928 कमीशन लाहौर पहुँचा। लाला लाजपत राय के नेतृत्व में कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन हुआ। जिसमें लाला लाजपतराय पर लाठी बरसायी गयीं। वे ख़ून से लहूलुहान हो गए। भगतसिंह ने यह सब अपनी आँखों से देखा।
17 नवम्बर, 1928 लाला जी का देहान्त हो गया। भगतसिंह बदला लेने के लिए तत्पर हो गए। लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' ने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, आज़ाद और जयगोपाल को यह कार्य दिया। क्रांतिकारियों ने साण्डर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लिया।
8 अप्रैल, 1929 भगतसिंह ने निश्चित समय पर असेम्बली में बम फेंका। दोनों ने नारा लगाया 'इन्कलाब ज़िन्दाबाद'… ,अनेक पर्चे भी फेंके, जिनमें जनता का रोष प्रकट किया गया था। बम फेंककर इन्होंने स्वयं को गिरफ़्तार कराया। अपनी आवाज़ जनता तक पहुँचाने के लिए अपने मुक़दमे की पैरवी उन्होंने खुद की।
7 मई, 1929 भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के विरुद्ध अदालत का नाटक शुरू हुआ ।
6 जून, 1929 भगतसिंह ने अपने पक्ष में वक्तव्य दिया, जिसमें भगतसिंह ने स्वतंत्रता, साम्राज्यवाद, क्रांति पर विचार रखे और क्रांतिकारियों के विचार सारी दुनिया के सामने आये।
12 जून, 1929 सेशन जज ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत आजीवन कारावास की सज़ा दी। इन्होंने सेशन जज के निर्णय के विरुद्ध लाहौर हाइकोर्ट में अपील की। यहाँ भगतसिंह ने पुन: अपना भाषण दिया ।
13 जनवरी, 1930 हाईकोर्ट ने सेशन जज के निर्णय को मान्य ठहराया। इनके मुक़दमे को ट्रिब्यूनल के हवाले कर दिया ।
5 मई, 1930 पुंछ हाउस, लाहौर में मुक़दमे की सुनवाई शुरू की गई। आज़ाद ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी बनाई।
28 मई, 1930 भगवतीचरण बोहरा बम का परीक्षण करते समय घायल हो गए। उनकी मृत्यु हो जाने से यह योजना सफल नहीं हो सकी। अदालत की कार्रवाई लगभग तीन महीने तक चलती रही ।
मई 1930 'नौजवान भारत सभा' को गैर-क़ानूनी घोषित कर दिया गया।
26 अगस्त, 1930 अदालत ने भगतसिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 तथा 6 एफ तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया।
7 अक्तूबर, 1930 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सज़ा दी गई। लाहौर में धारा 144 लगा दी गई ।
नवम्बर 1930 प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। प्रिवी परिषद में अपील रद्द किए जाने पर भारत में ही नहीं, विदेशों में भी लोगों ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई ।
24 मार्च, 1931 फाँसी का समय प्रात:काल 24 मार्च, 1931 निर्धारित हुआ था।
23 मार्च, 1931 सरकार ने 23 मार्च को सायंकाल 7.33 बजे, उन्हें एक दिन पहले ही प्रात:काल की जगह संध्या समय तीनों देशभक्त क्रांतिकारियों को एक साथ फाँसी दी। भगतसिंह तथा उनके साथियों की शहादत की खबर से सारा देश शोक के सागर में डूब चुका था। मुम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता जैसे महानगरों का माहौल चिन्तनीय हो उठा। भारत के ही नहीं विदेशी अखबारों ने भी अंग्रेज़ सरकार के इस कृत्य की बहुत आलोचनाएं कीं।

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है –
    भगतसिंह एक प्रतीक बन गया । साण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूँज उठा । उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई । वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी
  • वह शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियाँ गाते थे–
मेरा रंग दे बसंती चोला ।
इसी रंग में रंग के शिवा ने माँ का बंधन खोला ॥
मेरा रंग दे बसंती चोला
यही रंग हल्दीघाटी में खुलकर था खेला ।
नव बसंत में भारत के हित वीरों का यह मेला
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
  • अंग्रेज़ों से बचने के लिए भगतसिंह ने भेष बदला। उन्होंने अपने केश और दाढ़ी कटवाकर, पैंट पहनी और हैट लगाकर अंग्रेज़ों की आँखों में धूल झोंक कर कलकत्ता पहुँचे । कुछ दिन बाद वे आगरा गए।
  • 'हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ' की केन्द्रीय कार्यकारिणी की सभा में 'पब्लिक सेफ्टी बिल' और 'डिस्प्यूट्स बिल' के विरोध में भगतसिंह ने 'केन्द्रीय असेम्बली' में बम फेंकने का प्रस्ताव रखा । भगतसिंह के सहायक बटुकेश्वर दत्त बने ।
  • पिस्तौल और पुस्तक भगतसिंह के दो परम विश्वसनीय मित्र थे।
  • जेल में पुस्तकें पढक़र ही वे अपने समय का सदुपयोग करते थे, जेल की कालकोठरी में उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखीं-
  1. आत्मकथा, दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाज़े पर),
  2. आइडियल ऑफ़ सोशलिज़्म (समाजवाद का आदर्श),
  3. स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार।
  • भगतसिंह की शोहरत से प्रभावित होकर डॉ. पट्टाभिसीतारमैया ने लिखा है —
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय था, जितना कि गाँधीजी का।
  • लाहौर के उर्दू दैनिक समाचार पत्र 'पयाम' ने लिखा था —
हिन्दुस्तान इन तीनों शहीदों को पूरे ब्रितानिया से ऊँचा समझता है। अगर हम हज़ारों-लाखों अंग्रेज़ों को मार भी गिराएँ, तो भी हम पूरा बदला नहीं चुका सकते। यह बदला तभी पूरा होगा, अगर तुम हिन्दुस्तान को आज़ाद करा लो, तभी ब्रितानिया की शान मिट्टी में मिलेगी। ओ ! भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव, अंग्रेज़ खुश हैं कि उन्होंने तुम्हारा ख़ून कर दिया। लेकिन वो ग़लती पर हैं। उन्होंने तुम्हारा ख़ून नहीं किया, उन्होंने अपने ही भविष्य में छुरा घोंपा है। तुम ज़िन्दा हो और हमेशा ज़िन्दा रहोगे। 

विश्व गौरैया दिवस

विश्व गौरैया दिवस  

विश्व गौरैया दिवस
विश्व गौरैया दिवस
विवरण 'विश्व गौरैया दिवस' सम्पूर्ण विश्व में मनाया जाने वाला महत्त्वपूर्ण दिवस है। यह दिवस विलुप्त होते गौरैया पक्षी से जुड़ा है।
तिथि 20 मार्च
शुरुआत वर्ष 2010 से
संबंधित लेख गौरैया
अन्य जानकारी 'आंध्र विश्वविद्यालय' द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार भारत में गौरैया की संख्या में करीब 60 फीसदी की कमी आई है। यह कमी ग्रामीण और शहरी, दोनों ही क्षेत्रों में हुई है।
विश्व गौरैया दिवस (World Sparrow Day) प्रत्येक वर्ष '20 मार्च' को मनाया जाता है। यह दिवस पूरी दुनिया में गौरैया पक्षी के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए मनाया जाता है। घरों को अपनी चीं-चीं से चहकाने वाली गौरैया अब दिखाई नहीं देती। इस छोटे आकार वाले खूबसूरत पक्षी का कभी इंसान के घरों में बसेरा हुआ करता था और बच्चे बचपन से इसे देखते बड़े हुआ करते थे। अब स्थिति बदल गई है। गौरैया के अस्तित्व पर छाए संकट के बादलों ने इसकी संख्या काफ़ी कम कर दी है और कहीं-कहीं तो अब यह बिल्कुल दिखाई नहीं देती।

शुरुआत

'विश्व गौरैया दिवस' पहली बार वर्ष 2010 में मनाया गया था। यह दिवस प्रत्येक वर्ष 20 मार्च को पूरी दुनिया में गौरैया पक्षी के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए मनाया जाता है।

उद्देश्य

एक-दो दशक पहले हमारे घर-आंगन में फुदकने वाली गौरैया आज विलुप्ति के कगार पर है। इस नन्हें से परिंदे को बचाने के लिए ही पिछले तीन सालों से प्रत्येक 20 मार्च को 'विश्व गौरैया दिवस' के रूप में मनाते आ रहे हैं, ताकि लोग इस नन्हीं-सी चिड़िया के संरक्षण के प्रति जागरूक हो सकें। भारत में गौरैया की संख्या लगातार घटती ही जा रही है। कुछ वर्षों पहले आसानी से दिख जाने वाला यह पक्षी अब तेज़ी से विलुप्त हो रहा है। दिल्ली में तो गौरैया इस कदर दुर्लभ हो गई है कि ढूंढे से भी ये पक्षी नहीं मिलता, इसलिए वर्ष 2012 में दिल्ली सरकार ने इसे राज्य-पक्षी घोषित कर दिया।[1]

संकटग्रस्त पक्षी 'गौरैया'

पहले यह चिड़िया जब अपने बच्चों को चुग्गा खिलाया करती थी तो इंसानी बच्चे इसे बड़े कौतूहल से देखते थे, लेकिन अब तो इसके दर्शन भी मुश्किल हो गए हैं और यह विलुप्त हो रही प्रजातियों की सूची में आ गई है। पक्षी विज्ञानी हेमंत सिंह के अनुसार गौरैया की आबादी में 60 से 80 फीसदी तक की कमी आई है। यदि इसके संरक्षण के उचित प्रयास नहीं किए गए तो हो सकता है कि गौरैया इतिहास का प्राणी बन जाए और भविष्य की पीढ़ियों को यह देखने को ही न मिले। ब्रिटेन की ‘रॉयल सोसायटी ऑफ़ प्रोटेक्शन ऑफ़ बर्डस’ ने भारत से लेकर विश्व के विभिन्न हिस्सों में अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययनों के आधार पर गौरैया को ‘रेड लिस्ट’ में डाला है।[2]
'आंध्र विश्वविद्यालय' द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक गौरैया की आबादी में करीब 60 फीसदी की कमी आई है। यह ह्रास ग्रामीण और शहरी, दोनों ही क्षेत्रों में हुआ है। पश्चिमी देशों में हुए अध्ययनों के अनुसार गौरैया की आबादी घटकर खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है। गौरैया पर मंडरा रहे खतरे के कारण ही सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद मोहम्मद ई दिलावर जैसे लोगों के प्रयासों से आज दुनिया भर में 20 मार्च को 'विश्व गौरैया दिवस' मानाया जाता है, ताकि लोग इस पक्षी के संरक्षण के प्रति जागरूक हो सकें। दिलावर द्वारा शुरू की गई पहल पर ही आज बहुत से लोग गौरैया बचाने की कोशिशों में जुट रहे हैं।
गौरेया आज संकटग्रस्त पक्षी है, जो पूरे विश्व में तेज़ी से दुर्लभ हो रही है। दस-बीस साल पहले तक गौरेया के झुंड सार्वजनिक स्थलों पर भी देखे जा सकते थे, लेकिन खुद को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेने वाली यह चिड़िया अब भारत ही नहीं, यूरोप के कई बड़े हिस्सों में भी काफ़ी कम रह गई है। ब्रिटेन, इटली, फ़्राँस, जर्मनी और चेक गणराज्य जैसे देशों में इनकी संख्या जहाँ तेज़ी से गिर रही है, तो नीदरलैंड में तो इन्हें 'दुर्लभ प्रजाति' के वर्ग में रखा गया है।[3]

गौरेया का संक्षिप्त परिचय

गौरेया 'पासेराडेई' परिवार की सदस्य है, लेकिन कुछ लोग इसे 'वीवर फिंच' परिवार की सदस्य मानते हैं। इनकी लम्बाई 14 से 16 सेंटीमीटर होती है तथा इनका वजन 25 से 32 ग्राम तक होता है। एक समय में इसके कम से कम तीन बच्चे होते हैं। गौरेया अधिकतर झुंड में ही रहती है। भोजन तलाशने के लिए गौरेया का एक झुंड अधिकतर दो मील की दूरी तय करता है। यह पक्षी कूड़े में भी अपना भोजन ढूंढ़ लेते हैं।

घटती संख्या के कारण

गौरैया की घटती संख्या के कुछ मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-
  1. भोजन और जल की कमी
  2. घोसलों के लिए उचित स्थानों की कमी
  3. तेज़ी से कटते पेड़-पौधे
  4. गौरैया के बच्चों का भोजन शुरूआती दस-पन्द्रह दिनों में सिर्फ कीड़े-मकोड़े ही होते है, लेकिन आजकल लोग खेतों से लेकर अपने गमले के पेड़-पौधों में भी रासायनिक पदार्थों का उपयोग करते हैं, जिससे ना तो पौधों को कीड़े लगते हैं और ना ही इस पक्षी का समुचित भोजन पनप पाता है। इसलिए गौरैया समेत दुनिया भर के हज़ारों पक्षी आज या तो विलुप्त हो चुके हैं या फिर किसी कोने में अपनी अन्तिम सांसे गिन रहे हैं।[4]
  5. आवासीय ह्रास, अनाज में कीटनाशकों के इस्तेमाल, आहार की कमी और मोबाइल फोन तथा मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली सूक्ष्म तरंगें गौरैया के अस्तित्व के लिए खतरा बन रही हैं।
  6. आज लोगों में गौरैया को लेकर जागरूकता पैदा किए जाने की जरूरत है, क्योंकि कई बार लोग अपने घरों में इस पक्षी के घोंसले को बसने से पहले ही उजाड़ देते हैं।
  7. कई बार बच्चे इन्हें पकड़कर पहचान के लिए इनके पैर में धागा बांधकर इन्हें छोड़ देते हैं। इससे कई बार किसी पेड़ की टहनी या शाखाओं में अटक कर इस पक्षी की जान चली जाती है। इतना ही नहीं कई बार बच्चे गौरैया को पकड़कर इसके पंखों को रंग देते हैं, जिससे उसे उड़ने में दिक्कत होती है और उसके स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ता है।[2]

पक्षी विज्ञानियों की सलाह

पक्षी विज्ञानियों के अनुसार गौरैया को फिर से बुलाने के लिए लोगों को अपने घरों में कुछ ऐसे स्थान उपलब्ध कराने चाहिए, जहां वे आसानी से अपने घोंसले बना सकें और उनके अंडे तथा बच्चे हमलावर पक्षियों से सुरक्षित रह सकें। वैज्ञानिकों का मानना है कि गौरैया की आबादी में ह्रास का एक बड़ा कारण यह भी है कि कई बार उनके घोंसले सुरक्षित जगहों पर न होने के कारण कौए जैसे हमलावर पक्षी उनके अंडों तथा बच्चों को खा जाते हैं।
गौरैया आजकल अपने अस्तित्व के लिए मनुष्यों और अपने आसपास के वातावरण से काफ़ी जद्दोजहद कर रही है। ऐसे समय में हमें इन पक्षियों के लिए वातावरण को इनके प्रति अनुकूल बनाने में सहायता प्रदान करनी चाहिए। तभी ये हमारे बीच चह चहायेंगे। मनुष्यों को गौरैया के लिए कुछ ना कुछ तो करना ही होगा, वरना यह भी मॉरीशस के 'डोडो' पक्षी और गिद्ध की तरह पूरी तरह से विलुप्त हो जायेंगे। इसलिए सभी को मिलकर गौरैया का संरक्षण करना होगा। 

गुरुवार, फ़रवरी 11, 2016

विश्व रेडियो दिवस

विश्व रेडियो दिवस  

विश्व रेडियो दिवस
विश्व रेडियो दिवस 2015 पोस्टर
विवरण शिक्षा के प्रसार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सार्वजनिक बहस में रेडियो की भूमिका को रेखांकित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने पहली बार 'विश्व रेडियो दिवस' को मनाया।
तिथि 13 फ़रवरी
शुरुआत वर्ष 2012
उद्देश्य दुनिया के प्रमुख रेडियो प्रसारकों, स्थानीय रेडियो स्टेशनों और सारी दुनिया के रेडियो-श्रोताओं को एक ही मंच पर लाना।
अन्य जानकारी 13 फ़रवरी को संयुक्त राष्ट्र रेडियो की वर्षगांठ भी है। इसी दिन वर्ष 1946 में इसकी शुरूआत हुई थी। विश्व की 95 प्रतिशत जनसंख्या तक रेडियो की पहुंच है।
अद्यतन‎
विश्व रेडियो दिवस (अंग्रेज़ी: World Radio Day) 13 फ़रवरी को पूरे विश्व में मनाया जाता है। वर्ष 2012 को दुनियाभर में प्रथम विश्व रेडियो दिवस मनाया गया। शिक्षा के प्रसार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सार्वजनिक बहस में रेडियो की भूमिका को रेखांकित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने पहली बार 13 फ़रवरी 2012 को विश्व रेडियो दिवस के रूप में मनाया। 13 फ़रवरी को संयुक्त राष्ट्र रेडियो की वर्षगांठ भी है। इसी दिन वर्ष 1946 में इसकी शुरूआत हुई थी। विश्व की 95 प्रतिशत जनसंख्या तक रेडियो की पहुंच है और यह दूर-दराज के समुदायों और छोटे समूहों तक कम लागत पर पहुंचने वाला संचार का सबसे सुगम साधन हैं।[1]

सबसे सुलभ मीडिया

रेडियो विश्व का सबसे सुलभ मीडिया है। दुनिया के किसी भी कोने में रेडियो सुना जा सकता है। वे लोग, जो पढ़ना-लिखना नहीं जानते, रेडियो सुनकर सारी जानकारियाँ पा जाते हैं। आपातकालीन परिस्थितियों में रेडियो सम्पर्क-साधन की भूमिका भी निभाता है और लोगों को सावधान और सतर्क करता है। कोई भी प्राकृतिक आपदा आने पर बचाव-कार्यों के दौरान भी रेडियो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यूनेस्को ने रेडियो के इस महत्त्व को रेखांकित करने के लिए विश्व रेडियो दिवस मनाना शुरु किया है। यूनेस्को ने सबसे पहले विश्व-स्तर पर रेडियो दिवस मनाने की शुरुआत की थी। यूनेस्को के पेरिस स्थित मुख्यालय में इस अवसर पर विशेष समारोह का आयोजन किया गया है। दुनिया की प्रमुख रेडियो प्रसारण कम्पनियों को इस समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया है। इनमें रेडियो रूस भी शामिल है। रेडियो रूस दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी रेडियो प्रसारण कम्पनियों में से एक है। रेडियो रूस ने आज से 80 साल पहले अपने प्रसारण शुरू किए थे। आज रेडियो रूस के प्रसारण दुनिया की 44 भाषाओं में दुनिया के सभी महाद्वीपों के निवासी सुनते हैं।

शुरुआत

विश्व रेडियो दिवस मनाने की शुरुआत हाल ही में की गई है। यूनेस्को ने सन् 2011 में ही विश्व-स्तर पर रेडियो दिवस मनाने का निर्णय लिया। 13 फ़रवरी का दिन 'विश्व रेडियो दिवस' के रूप में इसलिए चुना गया क्योंकि 13 फ़रवरी सन् 1946 से ही रेडियो यू.एन.ओ. यानी संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अपने रेडियो प्रसारण की शुरुआत की गई थी। विश्व रेडियो दिवस के अवसर पर जारी अपने विशेष संदेश में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने कहा है कि रेडियो हमारा मनोरंजन करता है, हमें शिक्षित करता है, हमें सूचनाओं और जानकारियों से लैस करता है और सारी दुनिया में लोकतान्त्रिक बदलावों को प्रोत्साहित करता है। यूनेस्को के संचार और सूचना विभाग की प्रमुख मीर्ता लॉरेन्सो ने रेडियो रूस से बातचीत करते हुए कहा कि दुनिया के 95 प्रतिशत निवासी आज भी रेडियो सुनते हैं। 'विश्व रेडियो दिवस' के अवसर पर पेरिस स्थित यूनेस्को के मुख्यालय में एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया है। इस सम्मेलन में अनेक गोलमेज़ चर्चाएँ कराई जाती हैं, जिनमें उन फ़ौरी समस्याओं पर भी विचार किया जाएगा जो आज रेडियो के विकास में सामने आ रही हैं। मुख्य तौर पर चर्चा के लिए तीन विषय चुने गए हैं। ये विषय हैं-
  1. बच्चों और युवा वर्ग के लिए रेडियो
  2. रेडियो-पत्रकारों की सुरक्षा
  3. शार्ट-वेव रेडियो प्रसारणों का भविष्य।
रेडियो के महत्त्व की ओर हम विश्व-समुदाय का ध्यान आकर्षित करना चाहते थे ताकि सारी दुनिया के रेडियो स्टेशन भविष्य में आपस में एक-दूसरे के साथ सहयोग करें। यूनेस्को का मानना है कि 'विश्व रेडियो दिवस' मनाकर दुनिया के प्रमुख रेडियो प्रसारकों, स्थानीय रेडियो स्टेशनों और सारी दुनिया के रेडियो-श्रोताओं को एक ही मंच पर लाया जा सकेगा और उन्हें एकजुट करना संभव होगा।[2]

विश्व कैंसर दिवस

विश्व कैंसर दिवस  

विश्व कैंसर दिवस
विश्व कैंसर दिवस का प्रतीक चिह्न
विवरण आधुनिक विश्व में कैंसर एक ऐसी बीमारी है जिससे सबसे ज़्यादा लोगों की मृत्यु होती है। विश्व में इस बीमारी की चपेट में सबसे अधिक मरीज़ हैं।
तिथि 4 फ़रवरी
शुरुआत वर्ष 2005
उद्देश्य कैंसर से होने वाले नुकसान के बारे में बताना और लोगों को अधिक से अधिक जागरूक करना।
अन्य जानकारी कैंसर एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज तो अभी तक मुमकिन नहीं हो पाया है पर इसे काबू करना और इससे बचाव संभव है।
विश्व कैंसर दिवस प्रत्येक वर्ष 4 फ़रवरी को मनाया जाता है। आधुनिक विश्व में कैंसर एक ऐसी बीमारी है जिससे सबसे ज़्यादा लोगों की मृत्यु होती है। विश्व में इस बीमारी की चपेट में सबसे अधिक मरीज़ हैं। तमाम प्रयासों के बावजूद कैंसर के मरीजों की संख्या में कोई कमी नहीं आ रही है। इसी कारण विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हर साल 4 फरवरी को विश्व कैंसर दिवस की तरह मनाने का निर्णय लिया ताकि लोगों को इस भयानक बीमारी कैंसर से होने वाले नुकसान के बारे में बताया जा सकें और लोगों को अधिक से अधिक जागरूक किया जा सकें। ऐसा माना जा रहा है 2030 तक कैंसर के मरीजों की संख्या 1 करोड़ से भी अधिक हो सकती हैं। एक अनुमान के मुताबिक 2005 में 7.6 लाख लोग कैंसर से मौत के आगोश में समा गए थे। इतनी बड़ी संख्या में लोगों के मरने से और विश्व स्तर पर इस बीमारी के फैलने से सब चिंतित हैं।

शुरुआत

विश्व कैंसर दिवस के इतिहास के बारे में बात करें तो इसकी सही शुरुआत वर्ष 2005 से हुई थी। और तब से यह दिन विश्व में कैंसर के प्रति निरंतर जागरुकता फैला रहा है। भारत में भी इस दिन सभी स्वास्थ्य संगठनों ने जागरुकता फैलाने का निश्चय लिया है। भारत उन देशों में काफ़ी आगे है जहां तंबाकू और अन्य नशीले पदार्थों की वजह से कैंसर के मरीजों की संख्या बहुत ज़्यादा है। कैंसर एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज तो अभी तक मुमकिन नहीं हो पाया है पर इसे काबू करना और इससे बचाव संभव है। वैसे कैंसर हो जाने पर इससे छुटकारा पाना मुश्किल होता है पर नामुमकिन नहीं। मरीज़ अगर दृढ़ इच्छाशक्ति से इस बीमारी का सामना करे और सही समय पर इलाज मुहैया हो तो इलाज संभव हो जाता है। साथ ही हमेशा से माना जाता है कि उपचार से बेहतर है बचाव। इसी तरह कैंसर होने के बचे रहने में ज़्यादा समझदारी है।

सावधानियाँ

कैंसर से बचने के लिए तंबाकू उत्पादों का सेवन बिलकुल न करें, कैंसर का ख़तरा बढ़ाने वाले संक्रमणों से बचकर रहें, चोट आदि होने पर उसका सही उपचार करें और अपनी दिनचर्या को स्वस्थ बनाए। कैंसर के ज़्यादातर मामलों में फेफड़े और गालों के कैंसर देखने में आते हैं, जो तंबाकू उत्पादों का अधिक सेवन करने का नतीजा होता है। ऐसे मामलों में उपचार बेहद जटिल हो जाता है और मरीज़ के बचने के चांस भी कम हो जाते हैं। इसके साथ ही आजकल महिलाओं में स्तन कैंसर काफ़ी ज़्यादा देखने में आ रहा है जो बेहद खतरनाक होने के साथ काफ़ी पीड़ादायक होता है। यदि सही समय पर अगर इसके लक्षणों को पहचान कर उपचार किया जाए तो इसका इलाज बेहद सरल बन जाता है। कैंसर से सबसे ज़्यादा ख़तरा होता है युवाओं को जो आजकल की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में खुद को तनाव मुक्त रखने के लिए धूम्रपान का सहारा लेते हैं। विश्व को कैंसर मुक्त करने के लिए आप भी कदम बढ़ाएं और खुद तथा अपने सगे सबंधियों को तंबाकू, सिगरेट, शराब आदि से दूर रहने की सलाह दीजिए।

कैंसर

कैंसर क्या है, कैंसर क्यों होता है, इसका इलाज क्या इत्यादि बातों को जानना जरूरी है। आइए जानें विश्व कैंसर दिवस पर कैंसर के बारे में कुछ और बातें।

कैंसर क्या होता है

शरीर में कोशिकाओं के समूह की अनियंत्रित वृद्धि कैंसर है। जब ये कोशिकाएं टिश्यू को प्रभावित करती हैं तो कैंसर शरीर के अन्य हिस्सों में फैल जाता है। कैंसर किसी भी उम्र में हो सकता है। लेकिन यदि कैंसर का सही समय पर पता ना लगाया गया और उसका उपचार ना ह तो इससे मौत का जोखिम बढ़ सकता है। कैंसर के कई प्रकार हैं या यूं कहें कि कैंसर के सौ से भी अधिक रूप है। जैसे- स्तन कैंसर, सर्वाइकल कैंसर, ब्रेन कैंसर, बोन कैंसर, ब्लैडर कैंसर, पेंक्रियाटिक कैंसर, प्रोस्टेट कैंसर, गर्भाशय कैंसर, किडनी कैंसर, लंग कैंसर, त्वचा कैंसर, स्टमक कैंसर, थायरॉड कैंसर, मुंह का कैंसर, गले का कैंसर इत्यादि।

कैंसर के कारण

कैंसर कई तरह का होता है और हर कैंसर के होने के अलग-अलग कारण हैं। लेकिन कुछ मुख्य कारक ऐसे भी हैं जिनसे कैंसर होने का ख़तरा किसी को भी हो सकता है। ये कारक हैं-
  • वजन बढ़ना या मोटापा।
  • अधिक शारीरिक सक्रियता ना होना।
  • एल्कोहल और नशीले पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन करना।
  • कैंसर में पौष्टिक आहार ना लेना।
  • अपनी दिनचर्या में व्यायाम को शामिल ना करना।

कैंसर के अन्य कारण

  • कैंसर आनुवांशिक भी हो सकता है। कई बार कैंसर से पीडि़त माता या पिता के जीन बच्चे में भी आ जाते हैं जिससे बच्चे को भविष्य में कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है।
  • किसी गंभीर बीमारी के कारण भी आपको कैंसर हो सकता है। यानी यदि आप किसी गंभीर बीमारी के लिए दवाएं ले रहे हैं तो इन दवाओं के साइड इफेक्ट्स के कारण आप कैंसर के शिकार हो सकते हैं।
  • कई बार उम्र के बढ़ने के साथ भी शरीर में चुस्ती-फुर्ती नहीं रहती और उम्र के पड़ाव पर व्यक्ति बीमार पड़ने लगता है, ऐसे में कई बार कैंसर भी हो जाता है।

कुछ प्रमुख कैंसर

क्या आप जानते हैं देश में सबसे अधिक होने वाली मौतों में कुछ कैंसर प्रमुख हैं-
  • महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर, गर्भाश्य कैंसर और सर्वाइकल कैंसर से सबसे अधिक मौते होते हैं।
  • पुरुषों में सबसे अधिक मौत फुस्फुस, आमाशय, यकृत, कोलेस्ट्रोल और ब्रेन कैंसर से होती है।
  • कैंसर से मरने वाले लोगों में महिलाओं का प्रतिशत पुरुषों से अधिक है।

बसंत पंचमी

बसंत पंचमी  

बसंत पंचमी
सरसों के खेत
अन्य नाम वसंत पंचमी
अनुयायी हिंदू, भारतीय
उद्देश्य बसंत पंचमी के पर्व से ही 'बसंत ऋतु' का आगमन होता है। शांत, ठंडी, मंद वायु, कटु शीत का स्थान ले लेती है तथा सब को नवप्राण व उत्साह से स्पर्श करती है।
प्रारम्भ पौराणिक काल
तिथि माघ शुक्ल पंचमी
धार्मिक मान्यता ब्राह्मण-ग्रंथों के अनुसार वाग्देवी सरस्वती ब्रह्मस्वरूपा, कामधेनु तथा समस्त देवों की प्रतिनिधि हैं। ये ही विद्या, बुद्धि और ज्ञान की देवी हैं। अमित तेजस्वनी व अनंत गुणशालिनी देवी सरस्वती की पूजा-आराधना के लिए माघ मास की पंचमी तिथि निर्धारित की गयी है।
अन्य जानकारी ब्रज का यह परम्परागत उत्सव है। ब्रजवासी बंसती वस्त्र पहनते हैं। लोकप्रिय खेल पतंगबाज़ी, बसंत पंचमी से ही जुड़ा है।
बसंत पंचमी प्रसिद्ध भारतीय त्योहार है। इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। यह पूजा सम्पूर्ण भारत में बड़े उल्लास के साथ की जाती है। इस दिन स्त्रियाँ पीले वस्त्र धारण करती हैं। बसंत पंचमी के पर्व से ही 'बसंत ऋतु' का आगमन होता है। शांत, ठंडी, मंद वायु, कटु शीत का स्थान ले लेती है तथा सब को नवप्राण व उत्साह से स्पर्श करती है। पत्रपटल तथा पुष्प खिल उठते हैं। स्त्रियाँ पीले-वस्त्र पहन, बसंत पंचमी के इस दिन के सौन्दर्य को और भी अधिक बढ़ा देती हैं। लोकप्रिय खेल पतंगबाज़ी, बसंत पंचमी से ही जुड़ा है। यह विद्यार्थियों का भी दिन है, इस दिन विद्या की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती की पूजा आराधना भी की जाती है।
बसंत का अर्थ
बसंत ऋतु तथा पंचमी का अर्थ है- शुक्ल पक्ष का पाँचवां दिन अंग्रेज़ी कलेंडर के अनुसार यह पर्व जनवरी-फ़रवरी तथा हिन्दू तिथि के अनुसार माघ के महीने में मनाया जाता है।

बसंत ऋतु

बसंत को ऋतुओं का राजा अर्थात सर्वश्रेष्ठ ऋतु माना गया है। इस समय पंचतत्त्व अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रूप में प्रकट होते हैं। पंच-तत्त्व- जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि सभी अपना मोहक रूप दिखाते हैं।
सरसों का फूल
आकाश स्वच्छ है, वायु सुहावनी है, अग्नि (सूर्य) रुचिकर है तो जल पीयूष के समान सुखदाता और धरती, उसका तो कहना ही क्या वह तो मानो साकार सौंदर्य का दर्शन कराने वाली प्रतीत होती है। ठंड से ठिठुरे विहंग अब उड़ने का बहाना ढूंढते हैं तो किसान लहलहाती जौ की बालियों और सरसों के फूलों को देखकर नहीं अघाते। धनी जहाँ प्रकृति के नव-सौंदर्य को देखने की लालसा प्रकट करने लगते हैं तो वहीं निर्धन शिशिर की प्रताड़ना से मुक्त होने पर सुख की अनुभूति करने लगते हैं। सच! प्रकृति तो मानो उन्मादी हो जाती है। हो भी क्यों ना! पुनर्जन्म जो हो जाता है। श्रावण की पनपी हरियाली शरद के बाद हेमन्त और शिशिर में वृद्धा के समान हो जाती है, तब बसंत उसका सौन्दर्य लौटा देता है। नवगात, नवपल्लव, नवकुसुम के साथ नवगंध का उपहार देकर विलक्षण बना देता है।

पौराणिक इतिहास

विष्णुधर्मोत्तर पुराण में वाग्देवी को चार भुजा युक्त व आभूषणों से सुसज्जित दर्शाया गया है। स्कंद पुराण में सरस्वती जटा-जुटयुक्त, अर्धचन्द्र मस्तक पर धारण किए, कमलासन पर सुशोभित, नील ग्रीवा वाली एवं तीन नेत्रों वाली कही गई हैं। रूप मंडन में वाग्देवी का शांत, सौभ्य व शास्त्रोक्त वर्णन मिलता है। संपूर्ण संस्कृति की देवी के रूप में दूध के समान श्वेत रंग वाली सरस्वती के रूप को अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। बसंत पर्व का आरंभ बसंत पंचमी से होता है। इसी दिन श्री अर्थात विद्या की अधिष्ठात्री देवी महासरस्वती का जन्मदिन मनाया जाता है। सरस्वती ने अपने चातुर्य से देवों को राक्षसराज कुंभकर्ण से कैसे बचाया, इसकी एक मनोरम कथा वाल्मिकी रामायण के उत्तरकांड में आती है। कहते हैं देवी वर प्राप्त करने के लिए कुंभकर्ण ने दस हज़ार वर्षों तक गोवर्ण में घोर तपस्या की। जब ब्रह्मा वर देने को तैयार हुए तो देवों ने कहा कि यह राक्षस पहले से ही है, वर पाने के बाद तो और भी उन्मत्त हो जाएगा तब ब्रह्मा ने सरस्वती का स्मरण किया। सरस्वती राक्षस की जीभ पर सवार हुईं। सरस्वती के प्रभाव से कुंभकर्ण ने ब्रह्मा से कहा- स्वप्न वर्षाव्यनेकानि। देव देव ममाप्सिनम। यानी मैं कई वर्षों तक सोता रहूँ, यही मेरी इच्छा है।

सरस्वती पूजन एवं ज्ञान का महापर्व

ब्राह्मण-ग्रंथों के अनुसार वाग्देवी सरस्वती ब्रह्मस्वरूपा, कामधेनु तथा समस्त देवों की प्रतिनिधि हैं। ये ही विद्या, बुद्धि और ज्ञान की देवी हैं। अमित तेजस्विनी व अनंत गुणशालिनी देवी सरस्वती की पूजा-आराधना के लिए माघमास की पंचमी तिथि निर्धारित की गयी है। बसंत पंचमी को इनका आविर्भाव दिवस माना जाता है। अतः वागीश्वरी जयंती व श्रीपंचमी नाम से भी यह तिथि प्रसिद्ध हैऋग्वेद के 10/125 सूक्त में सरस्वती देवी के असीम प्रभाव व महिमा का वर्णन है। माँ सरस्वती विद्या व ज्ञान की अधिष्ठात्री हैं। कहते हैं जिनकी जिव्हा पर सरस्वती देवी का वास होता है, वे अत्यंत ही विद्वान व कुशाग्र बुद्धि होते हैं। बहुत लोग अपना ईष्ट माँ सरस्वती को मानकर उनकी पूजा-आराधना करते हैं। जिन पर सरस्वती की कृपा होती है, वे ज्ञानी और विद्या के धनी होते हैं। बसंत पंचमी का दिन सरस्वती जी की साधना को ही अर्पित है। शास्त्रों में भगवती सरस्वती की आराधना व्यक्तिगत रूप में करने का विधान है, किंतु आजकल सार्वजनिक पूजा-पाण्डालों में देवी सरस्वती की मूर्ति स्थापित कर पूजा करने का विधान चल निकला है। यह ज्ञान का त्योहार है, फलतः इस दिन प्रायः शिक्षण संस्थानों व विद्यालयों में अवकाश होता है। विद्यार्थी पूजा स्थान को सजाने-संवारने का प्रबन्ध करते हैं। महोत्सव के कुछ सप्ताह पूर्व ही, विद्यालय विभिन्न प्रकार के वार्षिक समारोह मनाना प्रारंभ कर देते हैं। संगीत, वाद- विवाद, खेल- कूद प्रतियोगिताएँ एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। बसंत पंचमी के दिन ही विजेयताओं को पुरस्कार बांटे जाते हैं। माता-पिता तथा समुदाय के अन्य लोग भी बच्चों को उत्साहित करने इन समारोहों में आते हैं। समारोह का आरम्भ और समापन सरस्वती वन्दना से होता है। प्रार्थना के भाव हैं-
ओ माँ सरस्वती ! मेरे मस्तिष्क से अंधेरे (अज्ञान) को हटा दो तथा मुझे शाश्वत ज्ञान का आशीर्वाद दो!

नवीन कार्यों के लिए शुभ दिन

बसंत पंचमी को सभी शुभ कार्यों के लिए अत्यंत शुभ मुहूर्त माना गया है। मुख्यतः विद्यारंभ, नवीन विद्या प्राप्ति एवं गृह प्रवेश के लिए बसंत पंचमी को पुराणों में भी अत्यंत श्रेयस्कर माना गया है। बसंत पंचमी को अत्यंत शुभ मुहूर्त मानने के पीछे अनेक कारण हैं। यह पर्व अधिकतर माघ मास में ही पड़ता है। माघ मास का भी धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष महत्व है। इस माह में पवित्र तीर्थों में स्नान करने का विशेष महत्व बताया गया है। दूसरे इस समय सूर्यदेव भी उत्तरायण होते हैं। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि देवताओं का एक अहोरात्र (दिन-रात) मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है, अर्थात उत्तरायण देवताओं का दिन तथा दक्षिणायन रात्रि कही जाती है। सूर्य की क्रांति 22 दिसम्बर को अधिकतम हो जाती है और यहीं से सूर्य उत्तरायण शनि हो जाते हैं। 14 जनवरी को सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं और अगले 6 माह तक उत्तरायण रहते हैं। सूर्य का मकर से मिथुन राशियों के बीच भ्रमण उत्तरायण कहलाता है। देवताओं का दिन माघ के महीने में मकर संक्रांति से प्रारंभ होकर आषाढ़ मास तक चलता है। तत्पश्चात आषाढ़ मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक मास शुक्ल पक्ष एकादशी तक का समय भगवान विष्णु का निद्रा काल अथवा शयन काल माना जाता है। इस समय सूर्यदेव कर्क से धनु राशियों के बीच भ्रमण करते हैं, जिसे सूर्य का दक्षिणायन काल भी कहते हैं। सामान्यतः इस काल में शुभ कार्यों को वर्जित बताया गया है। चूंकि बसंत पंचमी का पर्व इतने शुभ समय में पड़ता है, अतः इस पर्व का स्वतः ही आध्यात्मिक, धार्मिक, वैदिक आदि सभी दृष्टियों से अति विशिष्ट महत्व परिलक्षित होता है।[1]

ज्योतिषीय दृष्टिकोण

सरसों का फूल
ज्योतिषीय दृष्टि से सूर्य को ब्रह्माण्ड की आत्मा, पद, प्रतिष्ठा, भौतिक समृद्धि, औषधि तथा ज्ञान और बुद्धि का कारक ग्रह माना गया है। इसी प्रकार पंचमी तिथि किसी न किसी देवता को समर्पित है। बसंत पंचमी को मुख्यतः सरस्वती पूजन के निमित्त ही माना गया है। इस ऋतु में प्रकृति को ईश्वर प्रदत्त वरदान खेतों में हरियाली एवं पौधों एवं वृक्षों पर पल्लवित पुष्पों एवं फलों के रूप में स्पष्ट देखा जा सकता है। सरस्वती का जैसा शुभ श्वेत, धवल रूप वेदों में वर्णित किया गया है, वह इस प्रकार है-
"या कुन्देन्दु-तुषार-हार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता, या वीणा-वर दण्डमण्डित करा या श्वेत पद्मासना। या ब्रह्मा-च्युत शंकर-प्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता, सा मां पातु सरस्वती भगवती निः शेषजाडयापहा।"
अर्थात "देवी सरस्वती शीतल चंद्रमा की किरणों से गिरती हुई ओस की बूंदों के श्वेत हार से सुसज्जित, शुभ वस्त्रों से आवृत, हाथों में वीणा धारण किये हुए वर मुद्रा में अति श्वेत कमल रूपी आसन पर विराजमान हैं। शारदा देवी ब्रह्मा, शंकर, अच्युत आदि देवताओं द्वारा भी सदा ही वन्दनीय हैं। ऐसी देवी सरस्वती हमारी बुद्धि की जड़ता को नष्ट करके हमें तीक्ष्ण बुद्धि एवं कुशाग्र मेधा से युक्त करें।"

मत्स्यपुराण का उल्लेख

सरस्वती देवी के इसी रूप एवं सौंदर्य का एक प्रसंग मत्स्यपुराण में भी आया है, जो लोकपूजित पितामह ब्रह्मा के चतुर्मुख होने का कारण भी दर्शाता है। जब ब्रह्मा जी ने जगत की सृष्टि करने की इच्छा से हृदय में सावित्री का ध्यान करके तप प्रारंभ किया, उस समय उनका निष्पाप शरीर दो भागों में विभक्त हो गया। इसमें आधा भाग स्त्री और आधा भाग पुरुष रूप हो गया। वह स्त्री सरस्वती, ‘शतरूपा’ नाम से विख्यात हुई। वही सावित्री, गायत्री और ब्रह्माणी भी कही जाती है। इस प्रकार अपने शरीर से उत्पन्न सावित्री को देखकर ब्रह्मा जी मुग्ध हो उठे और यों कहने लगे- "कैसा सौंदर्यशाली रूप है, कैसा मनोहर रूप है"। तदनतर सुंदरी सावित्री ने ब्रह्मा की प्रदक्षिणा की, इसी सावित्री के रूप का अवलोकन करने की इच्छा होने के कारण ब्रह्मा के मुख के दाहिने पार्श्र्व में एक नूतन मुख प्रकट हो गया पुनः विस्मय युक्त एवं फड़कते हुए होठों वाला तीसरा मुख पीछे की ओर उद्भूत हुआ तथा उनके बाईं ओर कामदेव के बाणों से व्यथित एक मुख का आविर्भाव हुआ। अतः स्पष्ट है कि ऐसी शुभ, पवित्र तथा सौंदर्यशाली देवी अति धवल रूप सरस्वती देवी की उपासना भी तभी पूर्णतया फलीभूत हो सकती है, जब उसके लिए स्वयं ईश्वर तथा प्रकृति ऐसा पवित्र एवं शांत वातावरण निर्मित करें, जबकि हम अपने मन को पूर्णतया निर्मल एवं शांत बनाकर पूर्ण रूपेण देवी की उपासना में लीन कर दें एवं नैसर्गिक पवित्र वातावरण में रहकर मन, वचन एवं कर्म से पूर्ण निष्ठा एवं भक्ति से शारदा देवी की उपासना करें एवं उनकी कृपा दृष्टि के पूर्ण अधिकारी बन जाएं।[1]

सरस्वती व्रत का विधान और फल

बसंत पंचमी के दिन सरस्वती पूजन और व्रत करने से वाणी मधुर होती है, स्मरण शक्ति तीव्र होती है, प्राणियों को सौभाग्य प्राप्त होता है, विद्या में कुशलता प्राप्त होती है। पति-पत्नी और बंधुजनों का कभी वियोग नहीं होता है तथा दीर्घायु एवं निरोगता प्राप्त होती है। इस दिन भक्तिपूर्वक ब्राह्मण के द्वारा स्वस्ति वाचन कराकर गंध, अक्षत, श्वेत पुष्प माला, श्वेत वस्त्रादि उपचारों से वीणा, अक्षमाला, कमण्डल, तथा पुस्तक धारण की हुई सभी अलंकारों से अलंकृत भगवती गायत्री का पूजन करें। फिर इस प्रकार हाथ जोड़कर मंत्रोच्चार करें-
"यथा वु देवि भगवान ब्रह्मा लोकपितामहः।
त्वां परित्यज्य नो तिष्ठंन, तथा भव वरप्रदा।।
वेद शास्त्राणि सर्वाणि नृत्य गीतादिकं चरेत्।
वादितं यत् त्वया देवि तथा मे सन्तुसिद्धयः।।
लक्ष्मीर्वेदवरा रिष्टिर्गौरी तुष्टिः प्रभामतिः।
एताभिः परिहत्तनुरिष्टाभिर्मा सरस्वति।।
अर्थात् "देवि! जिस प्रकार लोकपितामह ब्रह्मा आपका कभी परित्याग नहीं करते, उसी प्रकार आप भी हमें वर दीजिए कि हमारा भी कभी अपने परिवार के लोगों से वियोग न हो। हे देवि! वेदादि सम्पूर्ण शास्त्र तथा नृत्य गीतादि जो भी विद्याएँ हैं, वे सभी आपके अधिष्ठान में ही रहती हैं, वे सभी मुझे प्राप्त हों। हे भगवती सरस्वती देवि! आप अपनी- लक्ष्मी, मेधा, वरारिष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा तथा मति- इन आठ मूर्तियों के द्वारा मेरी रक्षा करें।" [1]
उपरोक्त विधि से पूजन कर मौन होकर भोजन करना चाहिए। प्रत्येक मास की पंचमी को सुवासिनी स्त्रियों का भी पूजन करें, उन्हें यथाशक्ति तिल, चावल, दुग्धघृत पात्र प्रदान करें और 'गायत्री में प्रीयताम्' ऐसा बोलें। इस प्रकार वर्ष भर व्रत करें। व्रत की समाप्ति पर ब्राह्मण को चावलों से भरा पात्र, श्वेत वस्त्र, श्वेत चंदन, घंटा, अन्न आदि पदार्थ भी दान करें। यदि हो तो अपने गुरु देव का भी वस्त्र, धन, धान्य और माला आदि से पूजन करें। इस विधि से जो भी सरस्वती पूजन करता है वह विद्वान, धनी और मधुर वाणी से युक्त हो जाता है। भगवती सरस्वती की कृपा से उसे महर्षि वेदव्यास के समान ज्ञान प्राप्त हो जाता है। स्त्रियाँ यदि इस प्रकार सरस्वती पूजन करती हैं तो उनका अपने पति से कभी वियोग नहीं होता।

घरों में बसंत महोत्सव

लड्डू
पूजा कक्ष को अच्छी तरह साफ़ किया जाता है, तथा सरस्वती देवी की प्रतिमा को पीले फूलों से सजे लकड़ी के मंडप पर रखा जाता है। मूर्ति को भी पीत पुष्पों से सजाया जाता है। एवं पीत परिधान पहनाये जाते हैं। पीला रंग हिन्दुओं का शुभ रंग है। इसी प्रतिमा के निकट गणेश का चित्र या प्रतिमा भी स्थापित की जाती है। परिवार के सभी सदस्य तथा पूजा में सम्मिलित होने वाले सभी व्यक्ति भी पीले वस्त्र धारण करते हैं। बच्चे वयस्क देवी को प्रणाम करते हैं। बेर व संगरी प्रसाद की मुख्य वस्तुएँ हैं तथा इन्हीं के साथ पीली बर्फी या बेसन लड्डू भी रखे जाते हैं। प्रसाद की थाली में नारियलपान के पत्र भी रखे जाते हैं। बसंत पंचमी, बसंत ऋतु के प्रादुर्भाव की भी तिथि है अर्थात इसी दिन ऋतुराज बसंत का पृथ्वी पर प्रादुर्भाव हुआ था। साथ ही इसी दिन काम के देवता अनंग का भी आविर्भाव हुआ था। यानी कि इस दिन सम्पूर्ण प्रकृति में एक मादक उल्लास व आनन्द की सृष्टि हुई थी। वह मादक उल्लास व आनन्द की अनुभूति अब भी ज्यों की त्यों है, और बसंत पंचमी के दिन यह फूट पड़ती है। पीला रंग परिपक्वता का प्रतीक है।

बसंतोत्सव और पीला रंग

बसंत पंचमी का आनंद उठाते लोग
यह रंग हिन्दुओं का शुभ रंग है। बसंत पंचमी पर न केवल पीले रंग के वस्त्र पहने जाते हैं, अपितु खाद्य पदार्थों में भी पीले चावल पीले लड्डू व केसर युक्त खीर का उपयोग किया जाता है, जिसे बच्चे तथा बड़े-बूढ़े सभी पसंद करते हैं। अतः इस दिन सब कुछ पीला दिखाई देता है और प्रकृति खेतों को पीले-सुनहरे रंग से सज़ा देती है, तो दूसरी ओर घर-घर में लोग के परिधान भी पीले दृष्टिगोचर होते हैं। नवयुवक-युवती एक -दूसरे के माथे पर चंदन या हल्दी का तिलक लगाकर पूजा समारोह आरम्भ करते हैं। तब सभी लोग अपने दाएं हाथ की तीसरी उंगली में हल्दी, चंदन व रोली के मिश्रण को माँ सरस्वती के चरणों एवं मस्तक पर लगाते हैं, और जलार्पण करते हैं। धानफलों को मूर्तियों पर बरसाया जाता है। गृहलक्ष्मी बेर, संगरी, लड्डू इत्यादि बांटती है। प्रायः बसंत पंचमी के दिन पूजा समारोह विधिवत नहीं होते हैं, क्योंकि लोग प्रायः घर से बाहर के कार्यों में व्यस्त रहते हैं। हाँ, मंदिर जाना व सगे-संबंधियों से भेंट कर आशीर्वाद लेना तो इस दिन आवश्यक ही है।

बसंतोत्सव और मनोरंजन

बसंत पंचमी पर पतंगों की दुकान
बच्चे व किशोर बसंत पंचमी का बड़ी उत्सुकता से इंतज़ार करते हैं। आखिर, उन्हें पतंग जो उड़ानी है। वे सभी घर की छतों या खुले स्थानों पर एकत्रित होते हैं, और तब शुरू होती है, पतंगबाजी की जंग। कोशिश होती है, प्रतिस्पर्धी की डोर को काटने की। जब पतंग कटती है, तो उसे पकड़ने की होड़ मचती है। इस भागम-भाग में सारा माहौल उत्साहित हो उठता है।

मथुरा का मेला

माघ शुक्ल पंचमी को बसंत पंचमी के दिन मथुरा में दुर्वासा ऋषि के मन्दिर पर मेला लगता है। सभी मन्दिरों में उत्सव एवं भगवान के विशेष शृंगार होते हैं। वृन्दावन के श्रीबांके बिहारीजी मन्दिर में बसंती कक्ष खुलता है। शाह जी के मंदिर का बसंती कमरा प्रसिद्ध है। यहाँ दर्शन को भरी-भीड़ उमड़ती है। मन्दिरों में बसंती भोग रखे जाते हैं और बसंत के राग गाये जाते हैं बसंम पंचमी से ही होली गाना शुरू हो जाता है। ब्रज का यह परम्परागत उत्सव है। इस दिन सरस्वती पूजा भी होती है। ब्रजवासी बंसती वस्त्र पहनते हैं।

बसंतोत्सव पर प्रसाद और भोजन

बसंत पंचमी के दिन वाग्देवी सरस्वती जी को पीला भोग लगाया जाता है और घरों में भोजन भी पीला ही बनाया जाता है। इस दिन विशेषकर मीठा चावल बनाया जाता है। जिसमें बादाम, किशमिश, काजू आदि डालकर खीर आदि विशेष व्यंजन बनाये जाते हैं। इसे दोपहर में परोसा जाता है। घर के सदस्यों व आगंतुकों में पीली बर्फी बांटी जाती है। केसरयुक्त खीर सभी को प्रिय लगती है। गायन आदि के विशेष कार्यक्रमों से इस त्योहार का आनन्द और व्यापक हो जाता है।

ज्योतिष में बसंत पंचमी

सूर्य के कुंभ राशि में प्रवेश के साथ ही रति-काम महोत्सव आरंभ हो जाता है। यह वही अवधि है, जिसमें पेड़-पौधे तक अपनी पुरानी पत्तियों को त्यागकर नई कोपलों से आच्छादित दिखाई देते हैं। समूचा वातावरण पुष्पों की सुगंध और भौंरों की गूंज से भरा होता है। मधुमक्खियों की टोली पराग से शहद लेती दिखाई देती है, इसलिए इस माह को मधुमास भी कहा जाता है। प्रकृति काममय हो जाती है। बसंत के इस मौसम पर ग्रहों में सर्वाधिक विद्वान ‘शुक्र’ का प्रभाव रहता है। शुक्र भी काम और सौंदर्य के कारक हैं, इसलिए रति-काम महोत्सव की यह अवधि कामोद्दीपक होती है। अधिकतर महिलाएं इन्हीं दिनों गर्भधारण करती हैं। जन्मकुण्डली का पंचम भाव-विद्या का नैसर्गिक भाव है। इसी भाव की ग्रह-स्थितियों पर व्यक्ति का अध्ययन निर्भर करता है। यह भाव दूषित या पापाक्रांत हो, तो व्यक्ति की शिक्षा अधूरी रह जाती है। इस भाव से प्रभावित लोग मां सरस्वती के प्राकटच्य पर्व माघ शुक्ल पंचमी (बसंत पंचमी) पर उनकी पूजा-अर्चना कर इच्छित कामयाबी हासिल कर सकते हैं। इसके लिए माता का ध्यान कर पढ़ाई करें, उसके बाद गणेश नमन और फिर मन्त्र जाप करें। इसके अलावा संक्षिप्त विधि का सहारा भी लिया जा सकता है। हर राशि के छात्र अपनी राशि के शुभ पुष्पों से मां महासरस्वती की साधना कर सकते हैं। मेष और वृश्चिक राशि के छात्र लाल पुष्प विशेषत: गुड़हल, लाल कनेर, लाल गैंदे आदि से आराधना करके लाभ उठाएं। वृष और तुला राशि वाले श्वेत पुष्पों तथा मिथुन और कन्या राशि वाले छात्र कमल पुष्पों से आराधना कर सकते हैं। कर्क राशि वाले श्वेत कमल या अन्य श्वेत पुष्प से, जबकि सिंह राशि के लोग जवाकुसुम (लाल गुड़हल) से आराधना करके लाभ पा सकते हैं। धनु और मीन के लोग पीले पुष्प तथा मकर और कुंभ राशि के लोग नीले पुष्पों से मां सरस्वती की आराधना कर सकते हैं।
अगर आप मंदिर जा रहे हैं, तो पहले ॐ गं गणपतये नम: मन्त्र का जाप करें। उसके बाद माता सरस्वती के इस मन्त्र ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महासरस्वती देव्यै नम: का जाप करके आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं। इस मन्त्र के जाप से जन्मकुण्डली के लग्न (प्रथम भाव), पंचम (विद्या) और नवम (भाग्य) भाव के दोष भी समाप्त हो जाते हैं। इन तीनों भावों (त्रिकोण) पर श्री महाकाली, श्री महासरस्वती और श्री महालक्ष्मी का अधिपत्य माना जाता है। मां सरस्वती की कृपा से ही विद्या, बुद्धि, वाणी और ज्ञान की प्राप्ति होती है। देवी कृपा से ही कवि कालिदास ने यश और ख्याति अर्जित की थी। वाल्मीकि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, शौनक और व्यास जैसे महान ऋषि देवी-साधना से ही कृतार्थ हुए थे।