भारत का इतिहास

शुक्रवार, दिसंबर 11, 2015

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस  

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस
विवरणइस दिन को सम्पूर्ण विश्व की महिलाएँ देश, जात-पात, भाषा, राजनीतिक, सांस्कृतिक भेदभाव से परे एकजुट होकर मनाती हैं।
तिथि8 मार्च
स्थापना1910
उद्देश्ययह दिन महिलाओं को उनकी क्षमता, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक तरक़्क़ी दिलाने व उन महिलाओं को याद करने का दिन है जिन्होंने महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए अथक प्रयास किए।
विशेषसंयुक्त राष्ट्र हर बार महिला दिवस पर एक थीम रखता है। वर्ष 2015 की थीम है- सशक्त महिला-सशक्त मानवता। महिलाओं को सशक्त करने का अर्थ है 'इंसानियत को बुलंद करना'।
अन्य जानकारीदुनिया के प्रमुख विकसित एवं विकासशील देशों में भागदौड़ और आपाधापी से होने वाले तनाव के बारे में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार भारतकी सर्वाधिक महिलाएँ तनाव में रहती हैं। सर्वे में 87 प्रतिशत भारतीय महिलाओं ने कहा कि ज़्यादातर समय वे तनाव में रहती हैं और 82 प्रतिशत का कहना है कि उनके पास आराम करने के लिए वक़्त नहीं होता।
बाहरी कड़ियाँअंतरराष्ट्रीय महिला दिवस
अद्यतन‎
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (अंग्रेज़ी: International Women's Day) हर वर्ष '8 मार्च' को विश्वभर में मनाया जाता है। इस दिन सम्पूर्ण विश्व की महिलाएँ देश, जात-पात, भाषा, राजनीतिक, सांस्कृतिक भेदभाव से परे एकजुट होकर इस दिन को मनाती हैं। महिला दिवस पर स्त्री की प्रेम, स्नेह व मातृत्व के साथ ही शक्तिसंपन्न स्त्री की मूर्ति सामने आती है। इक्कीसवीं सदी की स्त्री ने स्वयं की शक्ति को पहचान लिया है और काफ़ी हद तक अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख लिया है। आज के समय में स्त्रियों ने सिद्ध किया है कि वे एक-दूसरे की दुश्मन नहीं, सहयोगी हैं।[1] संयुक्त राष्ट्र हर बार महिला दिवस पर एक थीम रखता है। वर्ष 2015 की थीम है-सशक्त महिला-सशक्त मानवता। महिलाओं को सशक्त करने का अर्थ है 'इंसानियत को बुलंद करना'।
'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' मनाती हुई महिलाएँ
“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।।“
'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस'

इतिहास

इतिहास के अनुसार आम महिलाओं द्वारा समानाधिकार की यह लड़ाई शुरू की गई थी। लीसिसट्राटा नामक महिला ने प्राचीन ग्रीस में फ्रेंच क्रांति के दौरान युद्ध समाप्ति की मांग रखते हुए आंदोलन की शुरुआत की, फ़ारसी महिलाओं के समूह ने वरसेल्स में इस दिन एक मोर्चा निकाला, इसका उद्देश्य युद्ध के कारण महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार को रोकना था। पहली बार सन् 1909 में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ़ अमेरिका द्वारा पूरे अमेरिका में 28 फ़रवरी को महिला दिवस मनाया गया था।1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल द्वारा कोपेनहेगन में महिला दिवस की स्थापना हुई। 1911 में ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में लाखों महिलाओं ने रैली निकाली। इस रैली में मताधिकार, सरकारी नौकरी में भेदभाव खत्म करने जैसे मुद्दों की मांग उठी। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, रूसी महिलाओं द्वारा पहली बार शांति की स्थापना के लिएफ़रवरी माह के अंतिम रविवार को महिला दिवस मनाया गया। यूरोपभर में भी युद्ध विरोधी प्रदर्शन हुए। 1917 तक रूस के दो लाख से ज़्यादा सैनिक मारे गए, रूसी महिलाओं ने फिर रोटी और शांति के लिए इस दिन हड़ताल की। हालांकि राजनेता इसके ख़िलाफ़ थे, फिर भी महिलाओं ने आंदोलन जारी रखा और तब रूस के जार को अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी और सरकार को महिलाओं को वोट के अधिकार की घोषणा करनी पड़ी।
'महिला दिवस' अब लगभग सभी विकसित, विकासशील देशों में मनाया जाता है। यह दिन महिलाओं को उनकी क्षमता, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक तरक़्क़ी दिलाने व उन महिलाओं को याद करने का दिन है जिन्होंने महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए अथक प्रयास किए।[2] 'संयुक्त राष्ट्र संघ' ने भी महिलाओं के समानाधिकार को बढ़ावा और सुरक्षा देने के लिए विश्वभर में कुछ नीतियाँ, कार्यक्रम और मापदंड निर्धारित किए हैं। भारत में भी 'महिला दिवस' व्यापक रूप से मनाया जाने लगा है।[3]

प्रगति, दुर्गति में परिणीत

समाज में यह विषमता चारों तरफ है और महिलाओं को लेकर भी यह सहज स्वाभाविक है। महिलाओं की प्रगति बदलाव की बयार में दुर्गति में अधिक परिणीत हुई है। हम बार-बार आगे बढ़कर पीछे खिसके हैं। बात चाहे अलग-अलग तरीक़े से किए गए बलात्कार या हत्या की हो, खौफनाक फरमानों की या महिला अस्मिता से जुड़े किसी विलंबित अदालती फैसले की। कहीं ना कहीं महिला कहलाए जाने वाला वर्ग हैरान और हतप्रभ ही नज़र आया है।[2]

सृष्टि सृजन में योगदान

'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' मनाती हुई महिलाएँ
सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के बाद सृष्टि सृजन में यदि किसी का योगदान है तो वो नारी का है। अपने जीवन को दांव पर लगा कर एक जीव को जन्म देने का साहस ईश्वर ने केवल महिला को प्रदान किया है। हालाँकि तथा-कथित पुरुष प्रधान समाज में नारी की ये शक्ति उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी मानी जाती है। आज समाज के दोहरे मापदंड नारी को एक तरफ पूज्यनीय बताते है तो दूसरी ओर उसका शोषण करते हैं। यह नारी जाति का अपमान है। औरत समाज से वही सम्मान पाने की अधिकारिणी है जो समाज पुरुषों को उसकी अनेकों ग़लतियों के बाद भी पुन: एक अच्छा आदमी बनने का अधिकार प्रदान करता है।

शक्ति प्रधान समाज का अंग

नारी को आरक्षण की ज़रूरत नहीं है। उन्हें उचित सुविधाओं की आवश्यकता है, उनकी प्रतिभाओं और महत्त्वकांक्षाओं के सम्मान की और सबसे बढ़ कर तो ये है कि समाज में नारी ही नारी को सम्मान देने लगे तो ये समस्या काफ़ी हद तक कम हो सकती है। महिला अपनी शक्ति को पहचाने और पुरुषों की झूठी प्रशंसा से बचे और सोच बदले कि वे पुरुष प्रधान समाज की नहीं बल्कि शक्ति प्रधान समाज का अंग है और शक्ति प्राप्त करना ही उनका लक्ष्य है और वो केवल एक दिन की सहानुभूति नहीं अपितु हर दिन अपना हक एवं सम्मान चाहती है।[4]
'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' मनाती हुई महिलाएँ

पूंजीवादी शोषण के ख़िलाफ़

'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' लगभग सौ वर्ष पूर्व, पहली बार मनाया गया था, जब पूंजीवाद और साम्राज्यवाद तेज़ी से विकसित हो रहे थे और लाखों महिलायें मज़दूरी करने निकल पड़ी थीं। महिलाओं को पूंजीवाद ने मुक्त कराने के बजाय, कारख़ानों में ग़ुलाम बनाया, उनके परिवारों को अस्त-व्यस्त कर दिया, उन पर महिला, मज़दूर और गृहस्थी होने के बहुतरफा बोझ डाले तथा उन्हें अपने अधिकारों से वंचित किया। महिला मज़दूर एकजुट हुईं और बड़ी बहादुरी व संकल्प के साथ, सड़कों पर उतर कर संघर्ष करने लगीं। अपने दिलेर संघर्षों के ज़रिये, वे शासक वर्गों व शोषकों के ख़िलाफ़ संघर्ष में कुछ जीतें हासिल कर पायीं। इसी संघर्ष और कुरबानी की परंपरा 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' पर मनायी जाती है। 'अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस' पूंजीवादी शोषण के ख़िलाफ़ और शोषण-दमन से मुक्त नये समाज के लिये संघर्ष, यानि समाजवाद के लिये संघर्ष के साथ नज़दीकी से जुड़ा रहा। समाजवादी व कम्युनिस्ट आन्दोलन ने सबसे पहले संघर्षरत महिलाओं की मांगों को अपने व्यापक कार्यक्रम में शामिल किया। जिन देशों में बीसवीं सदी में समाजवाद की स्थापना हुई, वहाँ महिलाओं को मुक्त कराने के सबसे सफल प्रयास किये गये थे।

अपराधीकरण और असुरक्षा का शिकार

'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' के अवसर पर विभिन्न कार्यक्रम
'प्रथम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' के मनाये जाने के लगभग सौ वर्ष बाद हमें नज़र आता है, कि एक तरफ, दुनिया की लगभग हर सरकार और सरमायदारों के कई अन्य संस्थान अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर ख़ूब धूम मचाते हैं। वे महिलाओं के लिये कुछ करने के बड़े-बड़े वादे करते हैं। दूसरी ओर, सारी दुनिया में लाखों महिलायें आज भी हर प्रकार के शोषण और दमन का शिकार बनती रहती हैं। वर्तमान उदारीकरण और भूमंडलीकरण के युग में पूंजी पहले से कहीं ज़्यादा आज़ादी के साथ, मज़दूरी, बाज़ार और संसाधनों की तलाश में, दुनिया के कोने-कोने में पहुँच रही है। विश्व में पूरे देश, इलाके और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र विकास के नाम पर तबाह हो रहे हैं और करोड़ों मेहनतकशों की ज़िन्दगी बरबाद हो रही हैं। जहाँ हिन्दुस्तान में हज़ारों की संख्या में किसान कृषि क्षेत्र में तबाही की वजह से खुदकुशी कर रहे हैं, मिल-कारख़ाने बंद किये जा रहे हैं, लोगों को रोज़गार की तलाश में घर-वार छोड़कर शहरों को जाना पड़ता है, शहरों में उन्हें न तो नौकरी मिलती है न सुरक्षा और बेहद गंदी हालतों में जीना पड़ता है। महिलायें, जो दुगुने व तिगुने शोषण का सामना करती हैं, जिन्हें घर-परिवार में भी ख़ास ज़िम्मेदारियाँ निभानी पड़ती हैं, जो बढ़ते अपराधीकरण और असुरक्षा का शिकार बनती हैं, इन परिस्थितियों में महिलायें बहुत ही उत्पीड़ित हैं।

न्याय

विश्व में बीते सौ वर्षों में महिलाओं के अनुभवों से हम यह अहम सबक लेते हैं कि महिलाओं का उद्धार पूंजीवादी विकास से नहीं हो सकता। बल्कि, महिलाओं का और ज़्यादा शोषण करने के लिये, महिलाओं को दबाकर रखने के लिये, पूंजीवाद समाज के सबसे प्रतिक्रियावादी ताकतों और तत्वों के साथ गठजोड़ बना लेता है। जो भी महिलाओं की उन्नति और उद्धार चाहते हैं, उन्हें इस सच्चाई का सामना करना पड़ेगा। जो व्यवस्था मानव श्रम के शोषण के आधार पर पनपती है, वह महिलाओं को कभी न्याय नहीं दिला सकती।

महिला आन्दोलन

'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' मनाती हुई महिलाएँ
भारत में महिला आन्दोलन पर यह दबाव और भी बढ़ गया है क्योंकि कम्युनिस्ट आन्दोलन की सबसे बड़ी पार्टियाँ और उनके महिला संगठन भी इसी रास्ते पर चलते हैं। इन संगठनों ने एक नयी सामाजिक व्यवस्था के लिये संघर्ष तो छोड़ ही दिया है। महिला आन्दोलन को विचारधारा से न बंधे हुए होने के नाम पर बहुत ही तंग या तत्कालीन मुद्दों तक सीमित रखा गया है। महिला आन्दोलन पर कई लोगों ने ऐसा विचार थोप रखा है कि महिलाओं की चिंता के विषय इतने महिला-विशिष्ट हैं, कि महिलाओं के उद्धार के संघर्ष का सभी मेहनतकशों के उद्धार के संघर्ष से कोई संबंध ही नहीं है। इस तरह से यह नकारा जाता है कि निजी सम्पत्ति ही परिवार और समाज में महिलाओं के शोषण-दमन का आधार है। ऐसी ताकतों ने इस प्रकार से महिला आन्दोलन को राजनीतिक जागरुकता से दूर रखने का पूरा प्रयास किया है, ताकि महिला आन्दोलन पंगू रहे और महिलाओं के उद्धार के संघर्ष को अगुवाई देने के काबिल ही न रहे। 
हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी इस अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर देश की सभी संघर्षरत महिलाओं से आह्वान करती है कि आपका भविष्य समाजवाद में है, वर्तमान व्यवस्था के विकल्प के लिये संघर्ष में है। सिर्फ़ वही समाज जो परजीवियों व शोषकों के दबदबे से मुक्त है, वही महिलाओं को समानता, इज्ज़त, सुरक्षा व खुशहाली का जीवन दिला सकती है। पर ऐसी व्यवस्था की रचना तभी हो पायेगी जब महिलायें, जो समाज का आधा हिस्सा हैं, खुद एकजुट होकर इसके लिये संघर्ष में आगे आयेंगी। जैसे-जैसे महिलायें अपने उद्धार के लिये संघर्ष को और तेज़ करेंगी, अधिक से अधिक संख्या में इस संघर्ष में जुड़ने के लिये आगे आयेंगी, वैसे-वैसे वह दिन नज़दीक आता जायेगा जब अपने व अपने परिजनों के लिये बेहतर जीवन सुनिश्चित करने का महिलाओं का सपना साकार होगा।
भारत की प्रसिद्ध महिलाएँ
इंदिरा गाँधीप्रतिभा पाटिलमदर टेरेसालता मंगेशकरएम. एस. सुब्बुलक्ष्मीकिरण बेदीसरोजिनी नायडूअमृता प्रीतममीरा कुमारसुचेता कृपलानीबछेन्द्री पालकर्णम मल्लेश्वरीकल्पना चावलाऐश्वर्या रायसुष्मिता सेनमैरी कॉमसाइना नेहवाल

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर कविता

(1) सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा[5]
मैंने हँसाना सीखा है
मैं नहीं जानती रोना।
बरसा करता पल-पल पर
मेरे जीवन में सोना॥

मैं अब तक जान न पाई
कैसी होती है पीड़ा।
हँस-हँस जीवन में मेरे
कैसे करती है क्रीडा॥

जग है असार, सुनती हूँ
मुझको सुख-सार दिखाता।
मेरी आँखों के आगे
सुख का सागर लहराता।

उत्साह-उमंग निरंतर
रहते मेरे जीवन में।
उल्लास विजय का हँसता
मेरे मतवाले मन में।

आशा आलोकित करती
मेरे जीवन को प्रतिक्षण।
हैं स्वर्ण-सूत्र से वलयित
मेरी असफलता के घन।

सुख भरे सुनहले बादल
रहते हैं मुझको घेरे।
विश्वास प्रेम साहस हैं
जीवन के साथी मेरे।[6]
(2) धीरेन्द्र सिंह द्वारा
आसमान सा है जिसका विस्तार
चॉद-सितारों का जो सजाए संसार
धरती जैसी है सहनशीलता जिसमें
है नारी हर जीवन का आधार

कभी फूल सा रंग-सुगंध लगे
कभी चींटी सा बोझ उठाए अपार
कभी स्नेह का लगे दरिया निर्झर
कभी बने किसी का परम आधार

चूल्हा-चौका रिश्तों-नातों की वेणी
हर घर की यह गरिमामय शृंगार
आज कहाँ से कहाँ पहुँच गई है
हर नैया की बन सशक्त पतवार

घर से दफ़्तर चूल्हे से चंदा तक
पुरुष संग अब दौड़े यह नार
महिला दिवस है शक्ति दिवस भी
पुरुष नज़रिया में हो और सुधार[7]

अपनों का चाहिए साथ

भारत की प्रसिद्ध बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल जब भी अपने माता-पिता के हाथ में मेडल व कप थामे तस्वीर फेसबुक पर शेयर करती हैं तो उन्हें ढेरों लाइक्स मिलते हैं। पी.वी. सिंधु को जब 'पद्मश्री' मिला तो पूरा परिवार आनंदित था। उनके पिता के मुताबिक, “पी.वी. की कामयाबी उसकी अपनी मेहनत और लगन की बदौलत है। हमने तो सिर्फ़ उस पर भरोसा किया, उसका साथ दिया।“ आधी आबादी का बड़ा तबका ऐसे ही भरोसे और साथ की बाट जोह रहा है। कितनी ही प्रतिभावान बेटियाँ अपने सपनों को ऐसे ही साथ की बदौलत सच करना चाहती हैं। विंग कमाण्डर पूजा ठाकुर ने जब राजपथ पर बराक ओबामा को गार्ड ऑफ़ ऑनर देने वाली वुमन फ़ोर्स का नेतृत्व किया तो इस ऐतिहासिक उपलब्धि पर हर किसी को गर्व हुआ। पूजा ठाकुर कहती हैं कि- “उस ख़ुशी का कोई मोल नहीं, जो देश के लिए योगदान देने के बाद प्राप्त हुआ।... पर यह एहसास नामुमकिन होता, यदि परिवार का साथ नहीं मिलता। अन्य सामान्य लड़कियों की तरह अपनों का साथ पाकर मेरा भी हौसला बढ़ता गया, उत्साह चौगुना होता गया।“
लगातार आर्थिक प्रगति के बावजूद भारतीय महिलाओं को अभी भी स्वास्थ्य, शिक्षा और कार्यक्षेत्र में असमानता का सामना करना पड़ रहा है। जेनेवा स्थित वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के वार्षिक लैंगिक समानता इण्डेक्स में भारत अब 114वें स्थान पर खिसक गया है।

सबसे ज़्यादा तनावग्रस्त हैं भारतीय महिलाएँ

दुनिया के प्रमुख विकसित एवं विकासशील देशों में आज की भागदौड़ और आपाधापी से होने वाले तनाव के बारे में किए गए भारतीय महिलाएं के सर्वेक्षण के अनुसार भारत की सर्वाधिक महिलाएँ तनाव में रहती हैं। दुनिया भर में महिलाएं खुद को बेहद तनाव और दबाव में महसूस करती हैं। यह समस्या आर्थिक तौर पर उभरते हुए देशों में ज़्यादा दिख रही है। एक सर्वे में भारतीय महिलाओं ने खुद को सबसे ज़्यादा तनाव में बताया। 21 विकसित और उभरते हुए देशों में कराए गए नीलसन सर्वे में सामने आया कि तेजी से उभरते हुए देशों में महिलाएँ बेहद दबाव में हैं लेकिन उन्हें आर्थिक स्थिरता और अपनी बेटियों के लिए शिक्षा के बेहतर अवसर मिलने की उम्मीद भी दूसरों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है। सर्वे में 87 प्रतिशत भारतीय महिलाओं ने कहा कि ज़्यादातर समय वे तनाव में रहती हैं और 82 फीसदी का कहना है कि उनके पास आराम करने के लिए वक़्त नहीं होता।

विश्व मानवाधिकार दिवस

विश्व मानवाधिकार दिवस  

विश्व मानवाधिकार दिवस
'विश्व मानवाधिकार दिवस'
विवरण'विश्व मानवाधिकार दिवस' प्रत्येक वर्ष 10 दिसम्बर को मनाया जाता है। किसी भी इंसान की ज़िंदगी, आज़ादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार है- "मानवाधिकार"।
मनाने की तिथि10 दिसम्बर
शुरुआत10 दिसम्बर1948
विशेषभारत में 28 सितंबर1993 से मानव अधिकार क़ानून अमल में आया। 12 अक्टूबर,1993 में सरकार ने 'राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग' का गठन किया।
अन्य जानकारी'भारतीय संविधान' मानवाधिकार की न सिर्फ़ गारंटी देता है, बल्कि इसे तोड़ने वाले को अदालत सजा भी देती है। संविधान के अनुच्छेद 14,15,16,17,19,20,21,23,24,39,43,45 देश में मानवाधिकारों की रक्षा करने के सुनिश्चित हैं।
विश्व मानवाधिकार दिवस प्रत्येक वर्ष 10 दिसम्बर को मनाया जाता है। इस महत्त्वपूर्ण दिवस की नींव विश्व युद्ध की विभीषिका से झुलस रहे लोगों के दर्द को समझ कर और उसको महसूस कर रखी गई थी। 'संयुक्त राष्ट्र संघ' की महासभा ने 10 दिसम्बर, 1948 को सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणापत्र को अधिकारिक मान्यता प्रदान की थी। तब से यह दिन इसी नाम से याद किया जाने लगा। किसी भी इंसान की ज़िंदगी, आज़ादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार है- "मानवाधिकार"। 'भारतीय संविधान' इस अधिकार की न सिर्फ़ गारंटी देता है, बल्कि इसे तोड़ने वाले को अदालत सज़ा देती है।

शुरुआत

10 दिसम्बर, 1948 को 'संयुक्त राष्ट्र महासभा' ने विश्व मानवाधिकार घोषणा पत्र जारी कर प्रथम बार मानवाधिकार व मानव की बुनियादी मुक्ति पर घोषणा की थी। वर्ष 1950 में 'संयुक्त राष्ट्र' ने हर वर्ष की 10 दिसम्बर की तिथि को 'विश्व मानवाधिकार दिवस' तय किया। 65 वर्ष से पहले हुआ पारित 'विश्व मानवाधिकार घोषणा पत्र' एक मील का पत्थर है, जिसने समृद्धि, प्रतिष्ठा व शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के प्रति मानव की आकांक्षा प्रतिबिंबित की है। आज यही घोषणा पत्र 'संयुक्त राष्ट्र संघ' का एक बुनियादी भाग है।[1]

क्या है 'मानव अधिकार'

किसी भी इंसान की ज़िंदगी, आज़ादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार है- "मानवाधिकार"। 'भारतीय संविधान' इस अधिकार की न सिर्फ़ गारंटी देता है, बल्कि इसे तोड़ने वाले को अदालत सजा देती है। भारत में 28 सितंबर1993 से मानव अधिकार क़ानून अमल में आया। 12 अक्टूबर1993 में सरकार ने 'राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग' का गठन किया। आयोग के कार्यक्षेत्र में नागरिक और राजनीतिक के साथ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार भी आते हैं, जैसे- बाल मज़दूरी, एचआईवी/एड्स, स्वास्थ्य, भोजन, बाल विवाह, महिला अधिकार, हिरासत और मुठभेड़ में होने वाली मौत, अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकार आदि।[2]
'विश्व मानवाधिकार घोषणा पत्र' का मुख्य विषय शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगारी, आवास, संस्कृति, खाद्यान्न व मनोरंजन से जुड़ी मानव की बुनयादी मांगों से संबंधित है। विश्व के बहुत से क्षेत्र गरीबी से पीड़ित है, जो बड़ी संख्या वाले लोगों के प्रति बुनियादी मानवाधिकार प्राप्त करने की सबसे बड़ी बाधा है। उन क्षेत्रों में बच्चे, वरिष्ठ नागरिकों व महिलाओं के बुनियादी हितों को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। इस के अलावा नस्लवाद व नस्लवाद भेद मानवाधिकार कार्य के विकास को बड़ी चुनौती दे रहा है।

मानवाधिकार - औचित्य और स्वरूप

मानव के जन्म लेने के साथ ही उसके अस्तित्व को बनाये रखने के लिए कुछ अधिकार उसको स्वतः मिल जाते हैं और वह उनका जन्मसिद्ध अधिकार होता है। इस दुनिया में प्रत्येक मनुष्य के लिए अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिकार एक मनुष्य होने के नाते प्राप्त हो जाता है। चाहे वह अपने हक के लिए बोलना भी जानता हो या नहीं। एक नवजात शिशु कोदूध पाने का अधिकार होता है और तब वह बोलना भी नहीं जानता। लेकिन माँ उसको स्वयं देती है और अगर नहीं देती है तो उसके घरवाले, डॉक्टर सभी उसको इसके लिए कहते हैं, क्योंकि ये उस बच्चे का हक है और ये उसे मिलना ही चाहिए। एक बच्चे के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए ये जरूरत सबसे अहम् होती है। लेकिन उसके बड़े होने के साथ-साथ उसके अधिकार भी बढ़ने लगते हैं। बच्चे के पढ़ने-लिखने और अपनी परवरिश आदि के लिए उसको समुचित सुविधाएँ और वातावरण देना भी जरूरी अधिकारों में आता है। उन्हें आत्म-सम्मान के साथ जीने के लिए, अपने विकास के लिए और आगे बढ़ने के लिए कुछ हालात ऐसे चाहिए, जिससे की उनके रास्ते में कोई व्यवधान न आये। पूरे विश्व में इस बात को अनुभव किया गया है और इसीलिए मानवीय मूल्यों की अवहेलना होने पर वे सक्रिय हो जाते हैं। इसके लिए हमारे संविधान में भी उल्लेख किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 14,15,16,17,19,20,21,23,24,39,43,45 देश में मानवाधिकारों की रक्षा करने के सुनिश्चित हैं। सिर्फ इतना ही नहीं, इस दिशा में आयोग के अतिरिक्त कई एनजीओ भी काम कर रहे हैं और साथ ही कुछ समाजसेवी लोग भी इस दिशा में अकेले ही अपनी मुहिम चला रहे हैं

रामानन्द सागर

रामानन्द सागर  

रामानन्द सागर
रामानन्द सागर
पूरा नामचंद्रमौली चोपड़ा
प्रसिद्ध नामरामानन्द सागर
जन्म29 दिसम्बर 1917
जन्म भूमिलाहौर, ब्रिटिश भारत
मृत्यु12 दिसम्बर 2005
मृत्यु स्थानमुंबईमहाराष्ट्र
मुख्य रचनाएँधारावाहिक- रामायण, कृष्णा, विक्रम बेताल, अलिफ़ लैला, जय गंगा मैया आदि
मुख्य फ़िल्मेंइंसानियत, कोहिनूर, पैगाम, आँखें, ललकार, चरस, आरज़ू, गीत, बग़ावत आदि
पुरस्कार-उपाधिपद्मश्री, फ़िल्मफेयर पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक (आँखें), फ़िल्मफेयर पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ लेखक (पैग़ाम)
विशेष योगदानउनके द्वारा निर्मित और निर्देशित धारावाहिक "रामायण" ने देश में अद्भुत सांस्कृतिक जागरण पैदा किया।
नागरिकताभारतीय
रामानन्द सागर (अंग्रेज़ीRamanand Sagar, जन्म: 29 दिसम्बर 1917; मृत्यु: 12 दिसम्बर 2005) एक भारतीय फ़िल्म निर्देशक थे। रामानन्द सागर सबसे लोकप्रिय धारावाहिक रामायण बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं। इनके कैरियर की शुरुआत "राइडर्स ऑफ़ द रैलरोड" (1936) नामक फ़िल्म के साथ हुई थी।

जीवन परिचय

बहुमुखी प्रतिभा के धनी रामानन्द सागर का जन्म अविभाजित भारत के लाहौर ज़िले के "असलगुरु" ग्राम नामक स्थान पर 29 दिसम्बर 1927 में एक धनी परिवार में हुआ था। उन्हें अपने माता पिता का प्यार नहीं मिला, क्योंकी उन्हें उनकी नानी ने गोद ले लिया था। पहले उनका नाम चंद्रमौली चोपड़ा था लेकिन नानी ने उनका नाम बदलकर रामानंद रख दिया। 1947 में देश विभाजन के बाद रामानन्द सागर सबकुछ छोड़कर सपरिवार भारत आ गए। उन्होंने विभाजन की जिस क्रूरतम, भयावह घटनाओं का दिग्दर्शन किया, उसे कालांतर में "और इंसान मर गया" नामक संस्मरणों के रूप में लिपिबद्ध किया। यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि वे जब अपनी मातृभूमि से बिछुड़कर युवावस्था में शरणार्थी बन भारत आए, उनकी जेब में मात्र 5 आने थे, किन्तु साथ में था अपने धर्म और संस्कृति के प्रति असीम अनुराग-भक्तिभाव। शायद इसी का परिणाम था कि आगे चलकर उन्होंने रामायण, श्रीकृष्ण, जय गंगा मैया और जय महालक्ष्मी जैसे धार्मिक धारावाहिकों का निर्माण किया। दूरदर्शन के द्वारा प्रसारित इन धारावाहिकों ने देश के कोने-कोने में भक्ति भाव का अद्भुत वातावरण निर्मित किया।

मेधावी छात्र

16 साल की अवस्था में उनकी गद्य कविता श्रीनगर स्थित प्रताप कालेज की मैगजीन में प्रकाशित होने के लिए चुनी गई। युवा रामानंद ने दहेज लेने का विरोध किया जिसके कारण उन्हें घर से बाहर कर दिया गया। इसके साथ ही उनका जीवन संघर्ष आरंभ हो गया। उन्होंने पढ़ाई जारी रखने के लिए ट्रक क्लीनर और चपरासी की नौकरी की। वे दिन में काम करते और रात को पढ़ाई। मेधावी छात्र होने के कारण उन्हें पंजाब विश्वविद्यालय पाकिस्तान से स्वर्ण पदक मिला और फ़ारसी भाषा में निपुणता के लिए उन्हें मुंशी फ़ज़ल के ख़िताब से नवाज़ा गया। इसके बाद सागर एक पत्रकार बन गए और जल्द ही वह एक अखबार में समाचार संपादक के पद तक पहुंच गए। इसके साथ ही उनका लेखन कर्म भी चलता रहा।

सागर आर्ट कॉरपोरेशन

रामानंद सागर का झुकाव फ़िल्मों की ओर 1940 के दशक से ही था। लेकिन उन्होंने बाक़ायदा फ़िल्म जगत में उस समय एंट्री ली, जब उन्होंने राज कपूर की सुपरहिट फ़िल्म 'बरसात' के लिए स्क्रीनप्ले और कहानी लिखी। भारत के अंग्रेज़ों से स्वतंत्रता पाने के बाद वर्ष 1950 में रामानन्द सागर ने एक प्रोडक्शन कंपनी "सागर आर्ट कॉरपोरेशन" शुरू की थी और 'मेहमान' नामक फ़िल्म के द्वारा इस कंपनी की शुरुआत की। बाद में उन्होंने इंसानियत, कोहिनूर, पैगाम, आँखें, ललकार, चरस, आरज़ू, गीत और बग़ावत जैसी हिट फ़िल्में बनाईं। वर्ष 1985 में वह छोटे परदे की दुनिया में उतर गए। फिर 80 के दशक में रामायण टीवी सीरियल के साथ रामानंद सागर का नाम घर-घर में पहुँच गया।

धारावाहिक रामायण

रामानन्द सागर ने उस समय इतिहास रचा जब उन्होंने टेलीविज़न धारावाहिक "रामायण" बनाया और जो भारत में सबसे लंबे समय तक चला और बेहद प्रसिद्ध हुआ। जो भगवान राम के जीवन पर आधारित और रावण और उसकी लंका पर विजय प्राप्ति पर बना था।

निर्देशन और निर्माण

रामानन्द सागर ने कुछ फ़िल्मों तथा कई टेलीविज़न कार्यक्रमों व धारावाहिकों का निर्देशन और निर्माण किया। इनके द्वारा बनाए गए प्रसिद्ध टीवी धारावाहिकों में रामायण, कृष्णा, विक्रम बेताल, दादा-दादी की कहानियाँ, अलिफ़ लैला और जय गंगा मैया आदि बेहद प्रसिद्ध हैं। धारावाहिकों के अलावा उन्होंने आंखें, ललकार, गीत आरजू आदि अनेक सफल फ़िल्मों का निर्माण भी किया। 50 से अधिक फ़िल्मों के संवाद भी उन्होंने लिखे। कैरियर के शुरुआती दिनों में उन्होंने पत्रकारिता भी की। पत्रकार, साहित्यकार, फ़िल्म निर्माता, निर्देशक, संवाद लेखक आदि सभी का उनके व्यक्तित्व में अनूठा संगम था। और तो और, रामायण धारावाहिक की प्रत्येक कड़ी में उनके द्वारा रामचरित मानस की घटनाओं, पात्रों की भक्तिपूर्ण, सहज-सरस और मधुर व्याख्या ने उन्हें एक लोकप्रिय प्रवचनकर्ता के रूप में भी स्थापित किया।

लेखन

उन्होंने 22 छोटी कहानियां, तीन वृहत लघु कहानी, दो क्रमिक कहानियां और दो नाटक लिखे। उन्होंने इन्हें अपने तखल्लुस चोपड़ा, बेदी और कश्मीरी के नाम से लिखा लेकिन बाद में वह सागर तखल्लुस के साथ हमेशा के लिए रामानंद सागर बन गए। बाद में उन्होंने अनेक फ़िल्मों और टेलीविज़न धारावाहिकों के लिए भी पटकथाएँ लिखी।

सम्मान और पुरस्कार

पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी एवं बॉलीवुड के कलाकारों के साथ रामानंद सागर
सन् 2001 में रामानन्द सागर को उनकी इन्हीं सेवाओं के कारण पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उन्हें फ़िल्म 'आँखें' के निर्देशन के लिए फ़िल्मफेयर पुरस्कार और 'पैग़ाम' के लिए लेखक का फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला।

निधन

देश में शायद ही कोई ऐसा फ़िल्म निर्माता-निर्देशक हो जिसे न केवल अपने फ़िल्मी कैरियर में भारी सफलता मिली वरन् जिसे करोड़ों दर्शकों, समाज को दिशा देने वाले संतों-महात्माओं का भी अत्यंत स्नेह और आशीर्वाद मिला। डा. रामानन्द सागर ऐसे ही महनीय व्यक्तित्व के धनी थे। सारा जीवन भारतीय सिने जगत की सेवा करने वाले रामानन्द सागर शायद भारतीय फ़िल्मोद्योग के ऐसे पहले टी.वी. धारावाहिक निर्माता व निर्देशक थे, जिनके निधन की खबर सुनते ही देश के कला प्रेमियों, करोड़ों दर्शकों सहित हजारों सन्त-महात्माओं में शोक की लहर दौड़ गई। गत 12 दिसम्बर 2005 की देर रात मुंबईमहाराष्ट्र के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया। 87 वर्षीय रामानंद सागर ने तीन महीने बीमार रहने के बाद अंतिम साँस ली। जूहु के विले पार्ले स्थित शवदाह गृह में उनके बड़े पुत्र सुभाष सागर ने उनके पार्थिव शरीर को मुखाग्नि दी। इस अवसर पर उनके चाहने वाले सैकड़ों लोग, कलाकार, निर्माता- निर्देशक उपस्थित थे।
उनकी जनप्रियता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हरिद्वार में आयोजित धर्मसंसद में शोकाकुल संतों, देश के चोटी के धर्माचार्यों ने उनकी स्मृति में मौन रखा। विश्व हिन्दू परिषद ने रामजन्म भूमि आन्दोलन में रामानन्द सागर के योगदान को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कहा कि इतिहास में उनका नाम सदैव अमर रहेगा। उनके द्वारा निर्मित और निर्देशित धारावाहिक "रामायण" ने देश में अद्भुत सांस्कृतिक जागरण पैदा किया।