गोरखा युद्ध 1816 ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार और
नेपाल के बीच हुआ। उस समय
भारत का
गवर्नर-जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स था।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के राज्य का प्रसार
नेपाल की तरफ़ भी होने लगा था, जबकि नेपाल अपने राज्य का विस्तार उत्तर की ओर
चीन के होने के कारण नहीं कर सकता था। गोरखों ने पुलिस थानों पर हमला कर दिया और कई
अंग्रेज़ों को अपना निशाना बनाया। इन सब परिस्थितियों में कम्पनी ने
गोरखा लोगों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
कम्पनी का राज्य विस्तार
1801 ई. में
ईस्ट इंडिया कम्पनी का क़ब्ज़ा
गोरखपुर
ज़िले पर हो जाने से कम्पनी का राज्य नेपाल की सीमा तक पहुँच गया। यह
दोनों राज्यों के लिए परेशानी का विषय था। नेपाली अपने राज्य का प्रसार
उत्तर की ओर नहीं कर सकते थे, क्योंकि उत्तर में शक्तिशाली
चीन और
हिमालय
था, अतएव ये लोग दक्षिण की ओर ही अपने राज्य का प्रसार कर सकते थे। लेकिन
दक्षिण में कम्पनी का राज्य हो जाने से उनके प्रसार में बाधा उत्पन्न हो
गई। अतएव दोनों पक्षों में मनमुटाव रहने लगा।
अंग्रेज़ों की सफलता
1814 ई. में गोरखों ने
बस्ती ज़िला (
उत्तर प्रदेश)
के उत्तर में बुटबल के तीन पुलिस थानों पर, जो कम्पनी के अधिकार में थे,
आक्रमण कर दिया, फलत: कम्पनी ने नेपाल के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
प्रथम ब्रिटिश अभियान तो विफल हुआ और
अंग्रेज़
लोग नेपाली राजधानी पर अधिकार नहीं कर सके। कालंग के क़िले पर हमले के समय
अंग्रेज़ सेनापति जनरल जिलेस्पी मारा गया। जैतक की लड़ाई में भी अंग्रेज़
सेना हार गई। लेकिन 1815 ई. में अंग्रेज़ी अभियान को अधिक सफलता प्राप्त
हुई। अंग्रेज़ों ने
अल्मोड़ा
पर, जो कि उन दिनों नेपाल के क़ब्ज़े में था, अधिकार कर लिया और मालौन के
क़िले में स्थित गोरखों को आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य कर दिया।
गोरखों की हार
अब गोरखों ने सोचा कि अंग्रेज़ों से लड़ना उचित नहीं है, अतएव उन्होंने नवम्बर, 1815 ई. में सुगौली की संधि कर ली। लेकिन
नेपाल
सरकार ने संधि की पुष्टि करने में देर की, फलत: ब्रिटिश सरकार के जनरल
आक्टरलोनी ने पुन: नेपाल पर आक्रमण कर दिया और फ़रवरी 1816 ई. में मकदानपुर
की लड़ाई में गोरखों को पराजित कर दिया। जब ब्रिटिश भारतीय फ़ौज आगे बढ़ते
हुए नेपाल की राजधानी से केवल 50 मील दूर रह गई, तो गोरखों ने अन्तिम रूप
से हार मान ली और सुगौली की संधि के अनुसार
गढ़वाल और
कुमाऊँ ज़िले को अंग्रेज़ों को दे दिया तथा
काठमाण्डू में
अंग्रेज़ रेजीडेण्ट रखना स्वीकार कर लिया। इसके बाद
गोरखा लोगों के सम्बन्ध अंग्रेज़ों से बहुत अच्छे हो गए और वे लोग ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफ़ादार रहे।
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