हुमायूँ का मक़बरा नई दिल्ली के 'दीनापनाह' अर्थात पुराने क़िले के निकट संत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के पासमथुरा मार्ग के निकट यमुना नदी के किनारे स्थित है। हुमायूँ का मक़बरा मुग़ल स्थापत्य कला या मुग़ल वास्तुकला से सम्बंधित है। हुमायूँ एक महान मुग़ल बादशाह था जिसकी मृत्यु शेर मंडल पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिर कर हुई थी। हुमायूँ का मक़बरा उनकी पत्नी हाजी बेगम ने हुमायूँ की याद में हुमायूँ की मृत्यु के आठ साल बाद बनवाया था। ग़ुलाम वंश के समय में यह भूमि किलोकरी क़िले में स्थित थी, जो कि नसीरूद्दीन महमूद (शासन 1246-1266 ई.) के पुत्र सुल्तान केकूबाद की राजधानी थी। यह समूह विश्व धरोहर घोषित है, एवं भारत में मुग़ल वास्तुकला का प्रथम उदाहरण है। इस मक़बरे की शैली वही है, जिसने ताजमहल को जन्म दिया।
1562 से 1572 के बीच बना यह मक़बरा दिल्ली के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक है। वास्तुकार मिराक मिर्ज़ा ग़ियात की छाप साफ़ देखी जा सकती है। यहाँ बाद में मुग़लों के शाही परिवार के कई सदस्यों को दफ़नाया गया। इस जगह पर हमीदा बेगम (अकबर की मां), दारा शिकोह (शाहजहाँ का बेटा) और बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय (अंतिम मुग़ल शासक) का मक़बरा भी है। यही मक़बरा विश्व विख्यात ताजमहल के निर्माण की प्रेरणा बना। इस मक़बरे का प्रभाव ताजमहल पर भी देखा जा सकता है। यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर का दर्जा दिया है। इस मक़बरे की देखरेख भारतीय पुरातत्त्व विभाग करता है। यह पहली जगह है जहाँ मक़बरे के साथ-साथ पार्क भी स्थित हैं। यहाँ भारतीय परम्परा एवं पारसी शैली की वास्तुकला का अदभुत संगम देखने को मिलता है।
निर्माण
इस धरोहर का निर्माण 1565 से 1572 ईसवी के बीच फ़ारसी वास्तुविद् मिराक मिर्ज़ा ग़ियात के डिजाइन पर हुआ था। ताजमहल जैसी कलात्मक नजीर पेश करने वाला यह मक़बरा 12,000 वर्ग मीटर के चबूतरे पर बना है जिसकी उँचाई 47 मीटर है। हमायूँ मक़बरे के केन्द्रीय कक्ष की आंतरिक सज्जा बढ़िया कालीनों व गलीचों से परिपूर्ण है। मक़बरे में क़ब्रों के ऊपर एक शुद्ध श्वेत शामियाना लगा होता था और उनके सामने ही पवित्र ग्रंथ रखे रहते थे। इनके साथ ही हुमायूँ की पगड़ी, तलवार और जूते भी रखे रहते थे।
मृत्य के उपरांत
हुमायूँ को उसकी मृत्यु के बाद दिल्ली में ही दफ़नाया गया, और इसके बाद में हुमायूँ को 1558 में खंजरबेग द्वारा पंजाब के सरहिंद ले जाया गया। कालांतर में 1571 में मुग़ल सम्राट अकबर ने अपने पिता की समाधि के दर्शन किये थे। 1562 में हुमायूँ की मृत्यु के 9 वर्ष बाद हुमायूँ के मक़बरे का निर्माण उसकी पत्नी हमीदा बानो बेगम के आदेश के अनुसार हुआ था। उस समय इस इमारत की लागत 15 लाख रुपये आयी थी।
मक़बरे के निर्माण का स्थान
हुमायूँ के मक़बरे के निर्माण के लिए यमुना नदी के किनारे के स्थान का चुनाव किया गया। इस स्थान का चुनाव मक़बरे के निकट स्थित हजरत निजामुद्दीन की दरगाह से निकटता के कारण किया गया था। दिल्ली के प्रसिद्ध सूफी संत हजरत निजामुद्दीन का तत्कालीन आवास भी मक़बरे के स्थान से उत्तर-पूर्व दिशा में निकट ही चिल्ला-निजामुद्दीन औलिया में स्थित था।[1]
फ़ारसी वास्तुकला से प्रभावित
इस धरोहर का निर्माण 1565 से 1572 ईसवी के बीच फ़ारसी वास्तुविद् मिराक मिर्ज़ा ग़ियात के डिजाइन पर हुआ था।
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यह मक़बरा फ़ारसी वास्तुकला से प्रभावित है, यह 47 मीटर ऊँचा और 200 फीट चौड़ा है। इस इमारत पर फ़ारसी बल्बुअस गुम्बद बना है, जो सर्वप्रथम सिकन्दर लोदी के मक़बरे में देखा गया था। गुम्बद दोहरी पर्त में बना है, बाहरी पर्त के बाहर श्वेत संगमरमर का आवरण लगा है, और अंदरूनी पर्त गुफ़ा रूपी बनी है। गुम्बद के शुद्ध और निर्मल श्वेत रूप से अलग शेष इमारत लाल बलुआ पत्थर की बनी है, जिस पर श्वेत और काले संगमरमर तथा पीले बलुआ पत्थर से पच्चीकारी का काम किया गया है। यह गुम्बद 42.5 मीटर के ऊँचे गर्दन रूपी बेलन पर बना है। गुम्बद के ऊपर 6 मीटर ऊँचा पीतल का किरीट कलश स्थापित है, और उसके ऊपर चंद्रमा लगा हुआ है, जो तैमूर वंश के मक़बरों में मिलता है। इन रंगों का संयोजन इमारत को एक ख़ूबसूरती देता है।[1]
वास्तुकार
अब्दुल क़ादिर बदायूंनी नाम के एक समकालीन इतिहासकार के अनुसार इस मक़बरे का स्थापत्य फ़ारसी वास्तुकार मिराक मिर्ज़ा ग़ियात ने किया था, जिन्हें इस इमारत के लिये अफ़ग़ानिस्तान के हेरात शहर से विशेष रूप से बुलवाया गया था। इन्होंने भारत की भी कई इमारतों की अभिकल्पना की थी। वे इस मक़बरे के पूरा होने से पहले ही चल बसे, किंतु उनके पुत्र ने अपने पिता का कार्य पूर्ण किया और हुमायूँ का मक़बरा 1571 में बनकर पूर्ण हुआ। यहाँ सर्वप्रथम लाल बलुआ पत्थर का इतने बड़े स्तर पर प्रयोग हुआ था। युनेस्को द्वारा 1993 में इस इमारत समूह को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया।
प्रेरणा
हमायूँ के मक़बरे में मुग़ल स्थापत्य में चारबाग़ शैली के उद्यान प्रमुख अंग थे। इससे पूर्व ऐसे उद्यान भारत में कभी भी नहीं दिखे थे और इसके बाद अनेक इमारतों का अभिन्न अंग बनते गये। हुमायूँ का मक़बरा इसके के पिता बाबर के क़ाबुल स्थित मक़बरे 'बाग़ ए बाबर' से बिल्कुल अलग था। मुग़ल सम्राटों को बाग़ में बने मक़बरों में दफ़न करने की परंपरा बाबर के साथ ही आरंभ हुई थी। तैमूर लंग के समरकंद में बने मक़बरे पर आधारित यह मक़बरा भारत में आगे आने वाली मुग़ल स्थापत्य के मक़बरों की प्रेरणा बना।[1]
मक़बरे की संरचना
इस विशाल इमारत में प्रवेश करने के लिये पश्चिम और दक्षिण में दो दुमंजिले प्रवेशद्वार 16 मीटर ऊँचे बने हुए हैं। प्रवेशद्वारों में दोनों ओर कक्ष स्थित हैं और ऊपर के तल पर छोटे प्रांगण हैं। मक़बरे की बनावट मूलरूप से पत्थरों को गारे-चूने से जोड़कर की गई है और मक़बरे को लाल बलुआ पत्थर के द्वारा ढका हुआ है। सफ़ेद संगमरमर का प्रयोग ऊपर की पच्चीकारी, फर्श की सतह, जालियाँ, द्वार-चौखटों और छज्जों के लिये किया गया है। इसका मुख्य गुम्बद भी श्वेत संगमरमर से ही ढका हुआ है। हमायूँ का मक़बरा 8 मीटर ऊँचे मूल चबूतरे पर खड़ा है, 12000 वर्ग मीटर की ऊपरी सतह को लाल जालीदार मुंडेर घेरे हुए है। इस वर्गाकार चबूतरे के कोनों को छांटकर अष्टकोणीय आभास दिया गया है। इस चबूतरे की नींव में 56 कोठरियां बनी हुई हैं, जिनमें 100 से अधिक क़ब्रें बनायी हुई हैं।[1]
मक़बरे की आंतरिक संरचना
इस इमारत का मुख्य कक्ष गुम्बददार एवं दुगुनी ऊँचाई का एक मंजिला है और इसमें गुम्बद के नीचे एकदम मध्य में आठ किनारे वाले एक जालीदार घेरे में द्वितीय मुग़ल सम्राट हुमायूँ की क़ब्र बनी है। हुमायूँ की क़ब्र इस इमारत की मुख्य क़ब्र है। इस इमारत में मुख्य केन्द्रीय कक्ष सहित नौ वर्गाकार कक्ष बने हैं। इनमें बीच में बने मुख्य कक्ष को घेरे हुए शेष आठ दुमंजिले कक्ष बीच में खुलते हैं। ठीक नीचे आंतरिक कक्ष में सम्राट हुमायूँ की असली समाधि बनी है, जिसका बाहर से रास्ता जाता है। इस पूरी इमारत में पीट्रा ड्यूरा नामक संगमरमर की पच्चीकारी का प्रयोग है और इस प्रकार के क़ब्र के नियोजन जो मुग़ल साम्राज्य के बाद के मक़बरों, जैसे ताजमहल आदि में खूब प्रयोग हुए हैं, यह भारतीय-इस्लामिक स्थापत्यकला का महत्त्वपूर्ण अंग हैं,
पश्चिम में मक्का की ओर संगमरमर की जालीदार घेरे के ठीक ऊपर इमारत के मुख्य कक्ष में मेहराब भी बना है। प्रधान कक्ष के चार कोणों पर चार अष्टकोणीय कमरे हैं, जो मेहराबदार दीर्घा से जुड़े हैं। प्रधान कक्ष की भुजाओं के बीच-बीच में चार अन्य कक्ष भी बने हैं। ये आठ कमरे मुख्य क़ब्र की परिक्रमा बनाते हैं, जैसी सूफीवाद और कई अन्य मुग़ल मक़बरों में दिखती है, साथ हीइस्लाम धर्म में जन्नत का संकेत भी करते हैं। यहाँ आमतौर पर प्रवेशद्वारों पर खुदे क़ुरआन के सूरा 24 के बजाय सूरा- अन-नूर की एक रेखा बनी है, जिसके द्वारा प्रकाश किबला (मक्का की दिशा) से अंदर प्रवेश करता है। इस प्रकार सम्राट का स्तर उनके विरोधियों और प्रतिद्वंदियों से ऊँचा देवत्व के निकट हो जाता है। इन प्रत्येक कमरों के साथ 8-8 कमरे और बने हैं, जो कुल मिलाकर 124 कक्षीय योजना का अंग हैं। मुग़ल नवाबों और दरबारियों की क़ब्रों को इन छोटे कमरों में समय-समय पर बनाया हुआ है। अतः इमारत को मुग़लों का क़ब्रिस्तान संज्ञा मिली हुई है। प्रथम तल को मिलाकर इस मुख्य इमारत में लगभग 100 से अधिक क़ब्रें बनी हैं, जिनमें से अधिकांश पर पहचान न खुदी होने के कारण दफ़न हुए व्यक्ति का पता नहीं है, किन्तु ये निश्चित है कि वे मुग़ल साम्राज्य के राज परिवार या दरबारियों में से ही थे।[1]
स्मारक
चारबाग़ उद्यान
हुमायूँ के मक़बरे के केन्द्र से निकलती हुई चार जल नालिकाएं चारबाग़ के वर्गाकार खाके की रेखा बनाती हैं। मक़बरे की पूर्ण शोभा इसको घेरे हुए 30 एकड़ में फैले चारबाग़ शैली के मुग़ल उद्यानों से निखरती है। जन्नत रूपी उद्यान चहारदीवारी के भीतर बना है। ये उद्यान चार भागों में पैदल पथों (खियाबान) और दो विभाजक केन्द्रीय जल नालिकाओं द्वारा बंटा हुआ है। इस प्रकार बने चार बागों को फिर से पत्थर के बने रास्तों द्वारा चार-चार छोटे भागों में विभाजित किया गया है। इस प्रकार कुल मिलाकर 36 भाग बनते हैं। जिस प्रकार क़ुरआन की आयतों में ’जन्नत के बाग’ का वर्णन किया गया है, ठीक उस प्रकार केन्द्रीय जल नालिका मुख्य द्वार से मक़बरे तक जाती हुई उसके नीचे जाती है और दूसरी ओर से फिर निकलती हुई प्रतीत होती है। चारबाग़ मक़बरे को घेरे हुए है, चारबाग़ को तीन ओर ऊँची पत्थर की चहारदीवारी घेरे हुए है और कभी निकट ही यमुना नदीतीसरी ओर बहा करती थी, जो समय के साथ परिसर से दूर चली गई है।
नाई का गुम्बद
मक़बरे परिसर में चारबाग़ के अंदर ही दक्षिण-पूर्वी दिशा में 1590 में बना नाई का गुम्बद है। इसकी मुख्य परिसर में उपस्थिति दफ़नाये गये व्यक्ति की महत्ता दर्शाती है। यह मक़बरा एक ऊँचे चबूतरे पर बना है जहाँ पहुंचने के लिये दक्षिणी ओर से सात सीढ़ियां बनी हैं। यह वर्गाकार है और इसके अकेले कक्ष के ऊपर एक दोहरा गुम्बद बना है। अंदर दो क़ब्रों पर क़ुरआन की आयतें खुदी हुई हैं। इनमें से एक क़ब्र पर 999 अंक खुदे हैं, जिसका अर्थ हिजरी का वर्ष 999 है जो 1590-91 ई. बताता है।[1]
ईसा ख़ाँ नियाजी का मक़बरा
हुमायूँ के मक़बरे के मुख्य पश्चिमी प्रवेशद्वार के रास्ते में प्रमुख स्मारक ईसा ख़ाँ नियाजी का मक़बरा है, जो मुख्य मक़बरे से भी 20 वर्ष पूर्व 1547 में बना था। ईसा ख़ाँ नियाजी मुग़लों के विरुद्ध लड़ने वाला सूर वंश के शासक शेरशाह सूरी के दरबार का एक अफ़ग़ान नवाब था। यह मक़बरा ईसा ख़ाँ के जीवनकाल में ही बना था और उसके बाद उसके पूरे परिवार के लिये ही काम आया। [1]
अन्य स्मारक
- इस मक़बरे में एक तीन आंगन चौड़ी लाल बलुआ पत्थर की मस्जिद स्थित है।
- हैरू बू हलीमा का मक़बरा और उसके बाग़ चहारदीवारी के बाहर स्थित हैं। ये मक़बरा अब ध्वंस हो चुका है और इसके अवशेषों से ज्ञात होता है कि ये केन्द्र में स्थित नहीं था। इससे आभास होता है कि संभवतः ये बाद में जोड़ा गया होगा।
- इस परिसर में अरब सराय स्थित है, जिसे हमीदा बेगम ने मुख्य मक़बरे के निर्माण में लगे कारीग़रों के लिये बनवाया था।
- इस परिसर में ही अफ़सरवाला मक़बरा भी बना है, जो अकबर के एक नवाब के लिये बना था। इसके साथ ही इसकी मस्जिद भी बनी है।
- नीला बुर्ज नामक मक़बरा पूरे परिसर के बाहर स्थित है । इस मक़बरे का नाम इसके गुम्बद के ऊपर लगी नीलीग्लेज्ड टाइलों के कारण पड़ा है।
जीर्णोद्धार
हुमायूँ के मक़बरे के चारबाग़ 13 हेक्टेयर क्षेत्र में फ़ैले हुए थे। 18वीं शताब्दी तक यहाँ स्थानीय लोगों ने चारबागों में सब्जी आदि उगाना आरंभ कर दिया था। 1860 में मुग़ल शैली के चारबाग़ अंग्रेज़ी शैली में बदलते गये। इनमें चार केन्द्रीय सरोवर गोल चक्करों में बदल गये व क्यारियों में पेड़ उगने लगे। 20वीं शताब्दी मेंलॉर्ड कर्ज़न जब भारत के वाइसराय बने, तब उन्होंने इसे वापस सुधारा। 1903-1909 के बीच एक वृहत उद्यान जीर्णोद्धार परियोजना आरंभ हुई, जिसके अंतर्गत्त नालियों में भी बलुआ पत्थर लगाया गया। 1915 में पौधारोपण योजना के तहत केन्द्रीय और विकर्णीय अक्षों पर वृक्षारोपण हुआ। इसके साथ ही अन्य स्थानों पर फूलों की क्यारियाँ भी वापस बनायी गईं। अगस्त, 1947में भारत के विभाजन के समय में पुराना क़िला और हुमायूँ का मक़बरा भारत से नवीन स्थापित पाकिस्तान को लिये जाने वाले शरणार्थियों के लिये शरणार्थी कैम्प में बदल गये थे। बाद में इन्हें भारत सरकार द्वारा अपने नियंत्रण में ले लिया गया। ये कैम्प लगभग पाँच वर्षों तक रहे और इनसे स्मारकों को अत्यधिक क्षति पहुंची, ख़ासकर इनके बगीचों, पानी की सुंदर नालियों आदि को। इसके उपरांत इस ध्वंस को रोकने के लिए मक़बरे के अंदर के स्थान को ईंटों से ढंक दिया गया, जिसे आने वाले वर्षों में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने वापस अपने पुराने रूप में स्थापित किया। हालांकि 1985 तक मूल जलीय प्रणाली को सक्रिय करने के लिये चार बार असफल प्रयास किये गए। मार्च, 2003 में आगा ख़ान सांस्कृतिक ट्रस्ट द्वारा इसका जीर्णोद्धार कार्य सम्पन्न हुआ था। इस जीर्णोद्धार के बाद यहाँ के बागों की जल-नालियों में एक बार फिर से जल प्रवाह आरंभ हुआ।
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