स्वदेशी आन्दोलन भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन
का एक महत्त्वपूर्ण अन्दोलन है जो भारतीयों की सफल रणनीति के लिए जाना
जाता है। स्वदेशी का अर्थ है - अपने देश का। इस रणनीति के अन्तर्गत ब्रिटेन
में बने माल का बहिष्कार करना तथा
भारत
में बने माल का अधिकाधिक प्रयोग करके ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुँचाना व
भारत के लोगों के लिये रोज़गार सृजन करना था। स्वदेशी आन्दोलन,
महात्मा गांधी के स्वतन्त्रता आन्दोलन का केन्द्र बिन्दु था। उन्होंने इसे स्वराज की
आत्मा भी कहा था।
आन्दोलन की घोषणा
दिसम्बर,
1903 ई. में
बंगाल विभाजन के प्रस्ताव की ख़बर फैलने पर चारो ओर विरोधस्वरूप अनेक बैठकें हुईं, जिसमें अधिकतर
ढाका, मेमन सिंह एवं चटगांव में हुई।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी,
कुष्ण कुमार मिश्र, पृथ्वीशचन्द्र राय जैसे बंगाल के नेताओं ने 'बंगाली',
'हितवादी' एवं 'संजीवनी' जैसे अख़बारों द्वारा विभाजन के प्रस्ताव की
आलोचना की। विरोध के बावजूद कर्ज़न ने
19 जुलाई,
1905 ई, को 'बंगाल विभाजन' के निर्णय की घोषणा की, जिसके परिणामस्वरूप
7 अगस्त, 1905 को
कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के 'टाउन हाल' में '
स्वदेशी आंदोलन' की घोषणा की गई तथा 'बहिष्कार प्रस्ताव' पास किया गया। इसी बैठक में ऐतिहासिक बहिष्कार प्रस्ताव पारित हुआ।
16 अक्टूबर, 1905 को बंगाल विभाजन के लागू होने के साथ ही विभाजन प्रभावी हो गया।
[1]
बहिष्कार आन्दोलन
अपनी मांगों को मनवाने के लिए उदारवादियों की अनुनय-विनय की नीति को
अस्वीकार करते हुए उसे उग्रवादियों ने 'राजनीतिक भिक्षावृत्ति' की संज्ञा
दी।
तिलक ने कहा कि 'हमारा उद्देश्य आत्म-निर्भरता है, भिक्षावृत्ति नहीं।'
विपिन चन्द्र पाल
ने कहा कि 'यदि सरकार मेरे पास आकर कहे कि स्वराज्य ले लो, तो मैं उपहार
के लिए धन्यवाद देते हुए कहूँगा कि 'मै उस वस्तु को स्वीकार नहीं कर सकता,
जिसको प्राप्त करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है।' इन नेताओं ने विदेशी माल
का बहिष्कार, स्वदेशी माल को अंगीकार कर राष्ट्रीय शिक्षा एवं सत्याग्रह के
महत्व पर बल दिया। उदारवादी नेता स्वदेशी एवं बहिष्कार आन्दोलन को बंगाल
तक ही सीमित रखना चाहते थे और उनका बहिष्कार आन्दोलन विदेशी माल के
बहिष्कार तक ही सीमित था, किन्तु उग्रवादी नेता इन आन्दोलनों का प्रसार देश
के विस्तृत क्षेत्र में करना चाहते थे। इनके बहिष्कार आन्दोलन की तुलना
गांधी जी के '
असहयोग आन्दोलन'
से की जा सकती है। ये बहिष्कार आन्दोलन को असहयोग आन्दोलन और शांतिपूर्ण
प्रतिरोध तक ले जाना चाहते थे। केवल विदेशी कपड़े का ही बहिष्कार नहीं,
अपितु सरकारी स्कूलों, अदालतों, उपाधियों सरकारी नौकरियों का भी बहिष्कार
इसमें शामिल था।
[2]
आन्दोलन का प्रभाव
1905 ई. में हुए
कांग्रेस के 'बनारस अधिवेशन' की अध्यक्षता करते हुए गोखले ने लें भी स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन को समर्थन दिया। उग्रवादी दल के नेता तिलक,
विपिनचन्द्र पाल, लाजपत राय एवं
अरविन्द घोष
ने पूरे देश में इस आंदोलन को फैलाना चाहा। स्वदेशी आंदोलन के समय लोगों
का आंदोलन के प्रति समर्थन एकत्र करने में 'स्वदेश बान्धव समिति' की
महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। इसकी स्थापना
अश्विनी कुमार दत्त ने की थी। शींध्र ही स्वदेशी आंदोलन का परिणाम सामने आ गया, जिसके परिणामस्वरूप
15 अगस्त,
1906
ई. को एक राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की स्थापना की गयी। स्वदेशी आंदोलन का
प्रभाव सांस्कृतिक क्षेत्र पर भी पड़ा, बंगाल साहित्य के लिए यह समय स्वर्ण
काल का था। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसी समय 'आमार सोनार बंगला' नामक गीत
लिखा, जो
1971 ई. में
बंगलादेश का राष्ट्रीय गान बना।
रवीन्द्रनाथ टैगोर को उनके गीतों के संकलन '
गीतांजलि' के लिए
साहित्य का
नोबेल पुरस्कार मिला।
कला के क्षेत्र में
अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने पाश्चात्य प्रभाव से अलग हटकर स्वदेशी चित्रकारी शुरु की। स्वदेशी आंदोलन में पहली बार महिलाओं ने पूर्ण रूप से प्रदर्शन किया।
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